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________________ 1264 नैषधमहाकाव्यम् / उदरवाला, नवागत भ्रमर-समूह कमलमें मकरन्दका पान करे या न करे ( इसके विषयमें मुझे कुछ नहीं कहना है, क्योंकि भरपेट भोजन किये हुए अतिथिको पुनः भोजन नहीं करनेमें कोई विशेष आग्रह नहीं करता ), किन्तु (वियोग होनेपर प्रियाके अभावमें कुमुदमकरन्दको भी नहीं पीनेसे ) रात्रिका प्यासा हुआ चकवा पक्षी कमल-मकरन्दको छोड़कर इस समय ( प्रातःकालमें ) स्ववधू-मुखरूपी कमलमें अधरनामक मकरन्दका पान कर रहा है। [रात्रिमें वियोग होने पर प्रियाविरहित चकवेका सुलभ भी कुमुदमकरन्दका अकेला होनेसे दुःखी होने के कारण पान नहीं करनेसे तृषार्त रह जाना तथा इस समय प्रातःकालमें कमलों के विकसित होने पर भी उनके मकरन्दका पान करना छोड़कर प्रियाके अधररूप कमलके अमृतरूप मकरन्दका पान करना चकवेका प्रिया अतिशयित प्रेम तथा कमलकी श्रेष्ठताको सूचित करता है / कमल विकसित हो गये, उनपर कहीं-कहीं भ्रमर मधुपान करने लगे तथा चकवा-चकई परस्परमें संयुक्त हो गये, अतः प्रभातकाल जानकर आप निद्रा स्याग करें] // 33 // जगति मिथुन चक्रावेव स्मरागमपारगौ नवमिव मिथः सम्सुनाते वियुज्य वियुज्य यौ सततममृतादेवाहाराद् यदापदरोचकं तदमृतभुजां भर्ता शम्भुर्विषं बुभुजे विभुः // 34 / / जगतीति / जगति त्रिलोकमध्ये, मिथुने मिथुनेषु, स्त्रीपुरुषयुगलमध्ये इत्यर्थः। निर्धारणे सप्तमी / जातावेकवचनम् / चक्रौ चक्रवाको एव, चक्रवाकमिथुनमेवेत्यर्थः / स्मरागमपारगौ कामशास्त्रतत्वज्ञौ, कामोपभोगे चतुरी इत्यर्थः / अन्तात्यन्ताध्व-' इति डप्रत्ययः / कुतः ? यो चक्री, मिथः परस्परम् , वियुज्य वियुज्य पुनः पुनः विश्लिष्य विश्लिष्य, प्रतिरानं स्वेच्छयैवेति भावः / नवमिव प्रत्यहं नूतनमिव, इदं प्रथममिवेत्यर्थः / सम्भुमाते सुरतसम्भोगानन्दमनुभवतः / अन्यथा अरोचकभयात् इति भावः / अत्र दृष्टान्तमाह-यत् तस्मात् , अमृतभुजां सुधासेविनां देवानाम् , भर्ता अधीश्वरः, एतेन सर्वदा अमृतपानं सम्भवतीति बोद्धव्यम् / विभुः प्रतीकारसमर्थः, एतेन विषपानजानिष्टप्रतीकारसामर्थ्य सूच्यते / शम्भुः शिवः सततम् अनारतम् , अमृतात् पीयूषात् , माहारात् , अशनात् , प्रात्यहिकाहार्यभूतादमृतादित्यर्थः / न रोचते इति अरोचकं तदाख्यं रोगम् आपत् अलभत, तत् तस्मात् एव, विषंगरलम् , बुभुजे पपौ। नित्यं मधुरादिसेवनेन जाताया अरुचेः कटुतिक्तादि. विपरीतरससेवनेन निवृत्तिदर्शनादिति भावः // 34 // ___ संसारमें मिथुन ( दम्पतियों ) में चकवा-चकई ही कामशास्त्रके पारगामी हैं अथवाकामशास्त्र के पारगामी चकवा चकई ही संसारमें मिथुन उत्तम दम्पति हैं ) जो ( चकवाचकई ) परस्पर में वियुक्त ( पृथक्-पृथक् ) होकर नवीन-नवीन-सा होकर सम्भोग करते
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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