________________ 1184 नैषधमहाकाव्यम् / अथवा-तुम्हारे बाहु आदिके बन्धादि (नागपाशादि आसन-विशेष ) आदिको मैं दिनमें भी देखूगा, क्योंकि रात्रिमें मैं नहीं देख सका तथा उत्सुक सखियां भी देखेंगी ऐसा नलने सङ्केत किया ] // 1 // प्रातरात्मशयनाद्विनिर्यती सन्निरुध्य यदसाध्यमन्यदा / तन्मुखार्पणमुखं सुखं भुवो जम्भजित् क्षितिशचीमचीकरत् // 61 / / प्रातरिति / भुवः पृथिव्याः, जम्भजित् इन्द्रः, नलः इत्यर्थः / प्रातः प्रभातसमये, आत्मशयनात् निजशय्यायाः, विनियंती निर्गच्छन्तीम्, क्षितिशची भूलोकेन्द्राणीम् स्मिन् समये, गृहानिर्गमनानन्तरमित्यर्थः / यत् यादृशं सुखम्, असाध्यं कर्तमशक्यम्, सखीसमीपे अवस्थानादिति भावः / तत् अनुभूतचरम्, मुखार्पणमुखं दमयन्तीमवरुध्य तया निजमुखचुम्बनादिकमकारयदित्यर्थः / करोतेौँ चङयपधाहस्वादि / 'हक्रोरन्यतरस्याम्' इति विकल्पादणिकतः कर्मत्वम् // 61 // (दमयन्ती ) को रोककर जो ( सुख ) दूसरे समयमें (रात्रिमें लज्जा, भय आदिके कारण) असाध्य था, उस मुखचुम्बन आदि सुखको दमयन्तीसे कराया [ अथवा-यदि तुम इस समय (रात्रिके अन्तमें ) मेरा कहना करोगी तभी तुम्हें अलभ्य पदार्थ तुम्हें दूंगा, (यातभी बाहर जाने दूंगा), अन्यथा नहीं; यह सुनकर दमयन्तीने सोचा कि यदि मैं इनका कहना नहीं मानती तो ये मुझे बाहर नहीं जाने देंगे, और अब प्रातःकाल हो जानेसे सखियों के आनेका समय है। यह विचारकर नलको मुखचुम्बनादि देकर वह दमयन्ती बाहर चली गयी / अथवा-नलने 'अपने मुख-चुम्बन आदि दमयन्तीद्वारा कराने से जो सुख होगा, वह सुख दिनमें सखियों के सामने असाध्य है' यह सोचकर दमयन्ती में वह सुख करवाया ] / / 61 // नायकस्य शयनादहर्मुखे निर्गता मुदमुदीक्ष्य सुभ्रुवाम् | आत्मना निजैनवस्मरोत्सवस्मारिणीयमहणीयत स्वयम् / / 62 // नायकस्येति / अहर्मुखे उपसि। 'रोऽसुपि' इत्यो नकारस्य रेफादेशः / नायकस्य पत्युः, शयनात् शय्यायाः, निर्गता निःसृता, इयं भैमी, सुध्रुवां सुलोचनानां सस्त्रीनाम् , मुदं हर्षम् , स्वसम्भोगचिह्नदर्शनजन्यमिति भावः / उदीच्य आलोक्य, आत्मना मनसा, 'आत्मा मुंसि स्वभावे च प्रयत्नमनसोरपि' इति मेदिनी / निज स्वकीयम् , नवं नूतनं सद्यस्कं वा, स्मरोत्सवं सम्भोगानन्दम् , स्मरति चिन्तयतीति 1. 'निजधव-' इति पाठान्तरम् /