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________________ नैषधमहाकाव्यम् / निवेशितमिति / तदीयाधरस्य दमयन्तीयाधरस्य, सीम्नि सीमप्रदेशे, यावकरा. गस्य अलक्तकरागस्य, दीप्तये स्फुरणाय, निवेशितं न्यस्तम्, अत एव लगत् दृढभावेन संसजत् , सिक्थकं मधूच्छिष्टं, मधुकोषजमिति यावत् / मधूनि क्षौद्राणि, निर्धूय निरस्य, सुधया समानः धर्मः स्वादुतारूपः यस्याः सा सुधासधर्मा / 'नामगोत्ररूपस्थानवर्णवयोवचनधर्मजातीयेषु समानस्य सभावः' इति वर्द्धमानसूत्रम् / 'समानस्य छन्दस्यमूर्द्धप्रभृत्युदर्केषु' इत्यत्र 'समानस्येति योगो विभज्यते, तेन सपक्षः साधम्य सजातीयमित्यादि सिद्धमिति काशिका'। 'धर्मादनिच केवलात्' इत्यनिच / 'मनः' इति मन्नन्तान ङीप् / तस्यां सुधार्मिणि अमृतसदृश्यां, तत्र एव तदीयाधरसीग्नि एव, निवस्तुं स्थायिभावेन अवस्थातुम, उत्सुकम् आग्रहान्वितं सत् , रराज / मधू. च्छिष्टसम्बन्धिक्षौद्रापेक्षया तदीयाधरस्योत्कृष्टत्वादिति भावः। अन्यथा कथम् अत्रेव लगेदित्युत्प्रेक्षा। अन्योऽपि उत्कृष्टस्थानलाभे चिरपरिचितमपि स्वस्थानमुत्सृजति इति दृश्यते // 43 // ___ उस ( दमयन्ती) के अधरके अन्तमें महावर (या-अधरकी लालिमाके लिए लगाया जानेवाला राग-विशेष ) के चमकने ( या स्थिरता ) के लिए लगाया गया मोम ससक्त होकर मधु ( शहद ) को छोड़कर अमृततुल्य वहीं ( उस अधरसीमामें ही) रहनेके लिए उत्कण्ठित होकर ( उत्कण्ठित-सा ) शोभता था। [ओष्ठमें रंगकी स्थिरताके लिए शृङ्गार करनेवाली सखीने पहले दमयन्तीके अधरान्तमें मोम लगा दिया, वह ऐसा मालूम पड़ता था कि उसने अपने चिरपरिचित स्थान मधुको छोड़कर निरन्तर निवास करनेके लिए उत्कण्ठित होकर यहां दमयन्तीके अधर में बसा हो। लोकमें भी कोई व्यक्ति चिरपरिचित साधारण स्थानको छोड़कर उत्तम स्थानमें निवास करनेके लिए उत्कण्ठित होकर जा बसता है / दमयन्तीका अधर मधुकी अपेक्षा भी अधिक स्वादु (मधुर ) था] // 43 // स्वरेण वोणेत्यविशेषणं पुराऽस्फुरत्तदीया खलु कण्ठकन्दली। अवाप्य तन्त्रीरथ सप्त मौक्तिकासरानराजत् परिवादिनी स्फुटम।।४४|| स्वरेणेति / तदीया दमयन्तीया, कण्ठकन्दली कण्ठनालः, कण्ठस्य कलध्वनि - रिति वा / 'कलध्वमौ कन्दलो तु मृगगुल्मप्रभेदयोः' इति मेदिनी। पुरा पूर्व, स्वरेण ध्वनिना, वीणेत्यविशेषणं साधारणतः वीणेति निर्विशेष, नामरूपविशेषशून्यं यथा तथा इत्यर्थः / अस्फुरत् वीणा इत्येव अबोधीत्यर्थः खलु इति निश्चये। अथ वीण. वेति स्फुरणानन्तरं, सप्त मौक्तिकासरान् सप्त मुक्तायष्टीरेव, तन्त्रीः वीणागुणान् ; अवाप्य परिवादिनी परिवादिन्याख्या वीणा सती / 'वीणा तु वल्लकी / विपञ्ची सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी' इत्यमरः। अराजत् , स्फुटम् इत्युत्प्रेक्षायाम् // 44 // उस ( दमयन्ती ) का कण्ठनाल पहले (मुक्तामाला धारण करने के पूर्व मधुर ) स्वरसे विशेषण-रहित 'वीणा' इसी सामान्य नामसे अवश्य ही स्फुरित होता (शोभता) था। अब वह सात लड़ियोंवाली मुक्तामालारूप तारोंको पाकर ( सात लड़ियोंवाले मोतियाक
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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