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________________ पञ्चदशः सगः। 606 विधू चन्द्रौ, जित्वा कर्णलतयोः युगेन बबन्ध किम् ? इति मिथ्याचन्द्रयोरेव बन्धनमुत्प्रेक्षते / जितस्य शत्रोर्बन्धनमुचितमिति भावः // 41 // करते हुए दमयन्तीके मुखने (दमयन्तीकी, या- उखके मुखको) स्पर्धा करनेवाले बतलाये गये रत्नजटित दो मणिकुण्डलोंको दो चन्द्रमा समझकर दो कर्णलताओंसे बांध लिया है क्या ? [ दमयन्तीका मुख अपने सौन्दर्यमदसे उन्मत्त होनेके कारण सत्यासत्यका विवेक करने में असमर्थ हो गया है, अत एव 'ये दो चन्द्रमा तुम्हारे ( मुखके) साथ ईर्ष्या कर रहे हैं। ऐसी हो चन्द्रमाकी भ्रान्तिसे रत्नजड़े हुए दो मणिकुण्डलोंको ही जीतकर कर्णलतासे बांध लिया है। अन्य भी मदोन्मत्त व्यक्ति वास्तविक बातका विचार नहीं करके दूसरे के अपराधसे तदितर व्यक्तिको दण्डित कर देता है / / दमयन्तीने रत्नोंसे जड़े हुए कुण्डलोंको कानमें धारण किया ] / / 41 // अवादि भैमी परिधाप्य कुण्डले वयस्ययाऽऽभ्यामभितः समन्वयः। . त्वदाननेन्दोः प्रियकामजन्मनि श्रयत्ययं दौरधुरी धुरं ध्रुवम् / / 42 / / अवादीति / वयस्यया सख्या, कुण्डले मणिकुण्डले, परिधाप्य आरोप्य, भैमी अवादि गदिता। किमिति ? हे भैमि ! आभ्यां मणिकुण्डलाभ्यां सह, अभितः उभयतः, त्वदाननेन्दोः तव मुखचन्द्रस्य, अयं समन्वयः समायोगः, प्रियस्य नलस्य, कामजन्मनि त्वयि रागोदये, दौरधुरी दुरधुराख्ययोगसम्बन्धिनी धुरं भारं, श्रयति फलदानभारं वहति, ध्रुवमित्युत्प्रेक्षा / चन्द्रस्यार्कातिरिक्तोभयग्रहमध्यगते दौरधुरयोगः; यदाह वराहमिहिर:-'हिलाऽक सुनयानयाद् दुरधुरा स्वान्त्योभयस्थैर्ग है: शीतांशोः' इति // 42 // दो कुण्डलोंको पहनाकर सखीने दमयन्तीसे कहा कि-इन ( कुण्डलों) के साथ दोनों और तुम्हारे मुख चन्द्रका सम्बन्ध होना प्रिय (नल ) के कामोत्पादनमें अवश्य ही 'दुरधुरा' नामक योगके भारको ग्रहण करता है। [ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्यभिन्न दो ग्रहोंकी राशिके मध्यमें चन्द्रमाके रहने पर 'दुरधरा' नामक योग होता है, उस योगमें . उत्पन्न पुत्र जिस प्रकार बहुत दिनों तक जीवित रहता है, उसी प्रकार इन कुण्डलद्वयरूपी दो ग्रहोंके बीच में स्थित तुम्हारे मुखरूपी चन्द्र के सुन्दर संयोगमें उत्पन्न नलप्रेम दिनोदिन बढ़ता हुआ बहुत दिनों तक स्थित रहेगा / 'नारायण' भट्टने “गुरु और शुक्रके मध्यगत चन्द्र के होने पर उक्त योग होता है। ऐसा कहा है ] / / 42 // निवेशितं यावकरागदीप्तये लगत्तदीयाधरसीम्नि सिक्थकम् / रराज तत्रैव निवस्तुमुत्सुकं मधूनि निधूय सुधासर्मिणि // 43 / / 1. तदुक्तम्-'गुरुभार्गवयोर्योगश्चन्द्रेणैव यदा भवेत् / तदा दुरुधराख्यः स्यात्' इति ज्योतिःशास्त्रादवगन्तव्यम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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