________________ 608 नैषधमहाकाव्यम् / अस्यां भैम्या, पतिते निक्षिप्ते, तथा लगित्वा तत्रैव आसज्य स्थिते च, पश्यतः भैमी तत्कौँ वा विलोकयतः, अत एव मनोभुवा कामेन, आन्ध्यं गमितस्य तदेकासक्तीकृतस्य इत्यर्थः। स्थानान्तरे नेत्रगमनादेवास्य अन्धत्वं बोद्धव्यम् / कस्यचित् रसिकस्य रसवतः, रागिणः इत्यर्थः / 'अत इनिठनौ' इति ठन्-प्रत्ययः। दृशौ इव व्यराजत् विरराज इत्युत्प्रेक्षा // 39 // इस ( दमयन्ती ) के द्वारा ( कानों के ऊपर ) धारण किये गये तथा कर्णभूषण बने हुए दो नीलकमल दमयन्तीमें गिरकर अर्थात् आसक्त होकर स्थित हो ( दमयन्तीको, या-उसके कानोंको.) देखते हुए ( अत एव ) कामदेवसे अन्धे किसी रसिक पुरुषके नेत्रद्वय के समान शोमते थे। [ अन्धा ब्यक्ति अन्यत्र जाने में असमर्थ होता है, यहां पर दमयन्तीको या उसके दोनों सुन्दर कानोंको आसक्तिपूर्वक देखते हुए तथा सुन्दरतम उसीको तन्मय होकर देखते रहनेसे अन्यत्र नहीं जाने अर्थात् दूसर। कुछ नहीं देखनेसे यहां उस रसिक पुरुषको कामान्ध होनेकी कल्पना की गयी है | // 39 // विदर्भसुभ्रश्रवणावतंसिकामणीमहःकिंशुककार्मुकोदरे / उदोतनेत्रोत्पलबाणसम्भृतिनलं परं लक्ष्यमवैक्षत स्मरः / / 40 // विदर्भेति / स्मरः विदर्भसुभ्रवः वदाः , श्रवणावतंसिका कर्णावतंसीभूता, या मणी, कृदिकारात्-' इतीकारः। तस्या महः प्रभा एव, किंशुककार्मुकं पलाशकुसुम चापं, तस्य उदरे मध्ये, उदीता उद्ता, प्रतिफलितेत्यर्थः / नेत्रस्य एव उत्पलबाणस्य सम्भृतिः सम्भरणं, नेत्ररूपनीलोत्पलबाणसम्भारः इत्यर्थः। यस्य स तारशः सन्, पलाशकुसुमधनुषि समारोपितनीलोत्पलशरः सन्नित्यर्थः। नलं परं नलमेव, लक्ष्यम् अवैक्षत प्रतीक्षते स्म / नल आगत्य भैम्या विभूषितकर्णनेत्रसौन्दर्यदर्शनमात्रेणेव कामबाणविद्धो भविष्यतीति भावः / / 40 // . विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती ) के कर्णभूषण-रत्नोंकी कान्तिरूप जो पलाशपुष्प, तद्रूप धनुषके मध्यमें प्रतिबिम्बित नेत्रकमलरूप बाण (प्रतिबिम्बित दो नेत्र तथा दो कोपल-इस प्रकार चार बाणों, या नेत्ररूप जो नीलकमल तद्रप बाणों) की सामग्रीवाला होकर केवल ( या-श्रेष्ठ ) लक्ष्य नलको ही देख ( प्रतीक्षा कर ) रहा था। [इन नीलोत्पलके कर्णभूषणोंमें प्रतिबिम्बित दमयन्तीके कन्जलसुन्दर नेत्रों को देखकर ही नल अवश्य मेरे ( कामदेवके ) वशीभूत हो जायेंगे ऐसा कामदेव समझ रहा था ] // 40 // अनाचरत्तथ्यमृषाविचारणां तदाननं कर्णलतायुगेन किम् / बबन्ध जित्वा मणिकुण्डले विधू द्विचन्द्रबुद्धया कथितावसूयको ? || अनाचरदिति / तथ्यमृषाविचारणाम् अनाचरत् सौन्दर्यमदात् सत्यासत्यविम शम् अकुर्वत् , तदाननं कर्तृ, द्विचन्द्रबुद्धया द्वौ चन्द्रौ इमौ इति भ्रान्त्या, कथिती सूचितो, असूयको स्वद्वेषिणी, आननस्योत्कर्षमसहमानावित्यर्थः। मणिकुण्डले एव