________________ पञ्चदशः सर्गः। 611 हारको पहनकर ) स्पष्टरूपसे. परिवादिनी ( सात तारोंसे बजनेवाली परिवादिनी' नामकी विशिष्ट वीणा ) होकर शोभने लगा। [ दमयन्तीका कण्ठ मोतियों का हार पहनने के पहले मधुर स्वरसे सामान्यतः 'वीणा' तुल्य शोभता था किन्तु अब सात लड़ियोंकी मुक्ताहार पहनकर सात तारोंसे बजनेवाली 'परिवादिनी' नामको विशिष्ट वीणाके समान शोभने लगा। उपास्यमानाविव शिक्षितुं ततो मृदुत्वमप्रौढमृणालनालया / विरेजतुर्माङ्गलिकेन संयुतौ भुजौ सुदत्या वलयेन कम्बुनः / / 45 / / उपास्यमानाविति / ततः कण्ठभूषणानन्तरं, माङ्गलिकेन मङ्गलार्थन / 'प्रयोजनम्' इति ठज / कम्बुनः शङ्खस्य, 'शङ्खः स्यात् कम्बुरस्त्रियाम्' इत्यमरः। वलयेन संयुती, सुदत्याःतस्याः दमयन्त्याः भुजौ अप्रौढ मृणालनालया बालबिसकाण्डदण्डेन, मृदत्वं मार्दवं, शिक्षितुम् अभ्यसितुम् , उपास्यमानौ सेव्यमानौ इव, विरेजतुः इत्युस्प्रेक्षा // 45 // मङ्गलार्थक शङ्ख के कङ्कणोंसे संयुक्त (विभूषित ), सुन्दर दाँतोंवाली ( दमयन्ती ) के दोनों बाहु ऐसे शोभते थे, कि मानो उन ( बाहुओं ) से कोमलता सीखनेके लिये बाल (नवाकरित) मृणालदण्ड उनकी सेवा कर रहे हों। [बालकको शिक्षा ग्रहण करना तथा तदर्थ गुरुकी सेवा करना लोकप्रसिद्ध है // दमयन्तीके बाहु नवाङ्कुरित मृणालदण्डसे भी अधिक कोमल हैं ] // 45 // पदद्वयेऽस्या नवयावरञ्जना जनैस्तदानीमुदनीयतापिता / चिराय पद्मौ परिरभ्य जाग्रती निशीव विश्लिष्य नवा रविद्यतिः।४६।। पदेति / तदानीं प्रसाधनकाले, अस्याः भैम्याः, पदद्वये अर्पिता नवयावस्य नवा. लक्तस्य / 'यावोऽलक्तो द्रुमामयः' इत्यमरः / रञ्जना रागः, निशि रात्रौ, विश्लिष्य वियुज्य, पद्मादिति भावः / चिराय दोर्घकालानन्तरं, प्रभाते इत्यर्थः / पद्मौ पद्मे 'वा पुंसि पद्म नलिनम्' इत्यमरः / परिरभ्य आलिङ्गय, प्राप्य इत्यर्थः / जाग्रती प्रकाश. माना, नवा प्रत्यग्रा, रविद्युतिः इव बालार्कप्रभेव, स्थितेति जनैः उदनीयत उन्नीता; उत्प्रेक्षितेत्यर्थः // 46 // उस समय में इस ( दमयन्ती ) के दोनों चरणों में महावरको लोगोंने ऐसा तर्क किया ( समझा ) कि रात्रिमें ( कमलसे ) पृथक् होकर बहुत देर (पूरी रात्रि बीतने ) के बाद (चरणरूप ) दो कमलोंको आलिङ्गन कर अर्थात् प्राप्तकर प्रकाशमान होती हुई वह सूर्यकी नवीन ( प्रातःकालीन ) कान्ति हो। [जिस प्रकार सायंकालमें कमलोंसे पृथक् होकर रात्रिके व्यतीत होनेके बाद कमलोंको पाकर सूर्यकी अरुणवर्ण कान्ति शोभित होती है, उसी प्रकार दमयन्तीके चरणोंको पाकर लाल रंगका 'महावर शोभता था। लोकमें भी चिरविरहित व्यक्ति पूर्वपरिचित मित्रादिको प्राप्तकर आलिङ्गन करता और अनुरक्त होता है। दमयन्तीके चरण कमलतुल्य थे] // 46 //