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________________ षोडशः सर्गः। 1014 ... भुवा कुरङ्गेक्षणदन्तिचारयोर्बभार शोभां कृतपादसेवया // 116 // ___ असाविति / बहुधातुभिः सुवर्णादिभिः, मण्डितः अलङ्कृतः, एकत्र-सुवर्णादिन निर्मिताभरणेनालङ्कृतत्वात् , अन्यत्र-तत्तद्धातूनामाकरत्वेन तद्युक्तरवादिति भावः। असौ अयं, महीभृत् राजा नलः, पर्वतश्च, कुरङ्गस्येव मृगस्येव, ईक्षणं चतुः, अन्यत्रकुरगाणाम् ईक्षणं, दन्तिनः गजस्य इव, चारः गमनम् , अन्यत्र-दन्तिनां चारः गतिः, तयोः भुवा स्थानेन, मृगवत् नयनयोः गजवत् गमनस्य च आश्रयभूतया इत्यर्थः, मृगाच्या गजगामिन्या च इति भावः / अन्यत्र-मृगाणां दन्तिनाञ्च तत्र विद्यमानत्वेन तयोर्दर्शनगमनाश्रयभूतया इत्यर्थः, कृता विहिता,पादसेवा भतश्चरणसेवा, अन्यत्र-पादानां प्रत्यन्तपर्वतानां, सेवा सानिध्यमित्यर्थः, 'पादाः प्रत्यन्तपर्वताः' इत्यमरः / यया तादृश्या, निजया आत्मीयया, उपत्यकया आसनभूम्या इव, तया भैम्या, काम् अपि अनिर्वाच्यां, शोभा कान्ति, बभार धारयामास // 119 // अनेक प्रकारके धातु (सुवर्णनिर्मित रत्नजटित अलङ्कार ) से सुशोभित ये राजा ( नल) मृगदर्शन तथा गजगमनकी उत्पत्तिस्थान अर्थात् श्रेष्ठ मृगनयनी तथा गजगामिनी और चरण-सेवा करनेवाली सतत पाववर्तिनी उस ( दमयन्ती ) से उस प्रकार किसी ( अनिर्वचनीय ) शोमाको प्राप्त किये, जिस प्रकार (खानों के होनेसे ) अनेक प्रकारके धातुओं ( सुवर्ण, चांदी, ताँबा तथा गेरू आदि ) से शोभित पर्वत हरिणों के दर्शन तथा हाथियोंके गमनकी भूमि तथा प्रत्यन्तपर्वतोंसे सेवित अपनी उपत्यका (पर्वतकी समीपस्थ भूमि ) से किसी अनिर्वचनीय शोमाको प्राप्त करता है // 119 // तदेकतानस्य नृपस्य रक्षितुं चिरोढया भावमिवात्मनि श्रिया / विहाय सापत्न्यमरञ्जि भीमजा समग्रतद्वान्छितपूर्त्तिवृत्तिभिः / / 120 // तदिति / चिराय बहुकालात् , ऊढया तया परिणीतया च, श्रिया राज्यलक्ष्म्या तदेकतानस्य दमयन्त्येकवृत्तेः, 'एकत्तानोऽनन्यवृत्तिः' इत्यमरः / नृपस्य नलस्य, भावं चित्तवृत्तिम् , अनुरागमिति यावत्, आत्मनि स्वविषये, रक्षितुं स्थिरीकर्तुम् इव, इत्युत्प्रेक्षा / सापत्न्यं सपत्नीभावं, सपत्नीद्वेषमित्यर्थः, विहाय परित्यज्य, भीमजा भैमी, समग्राणां सर्वविधानां, तद्वान्छितानां दमयन्तीप्सितानामित्यर्थः, पूर्तिवृत्तिभिः पूरणव्यापारैः, अरञ्जि रञ्जिता, पतिचित्तानुरञ्जनाय सपत्नीः अपि उपासते साध्यः इति भावः // 120 // चिरस्वीकृत ( पक्षा०-चिरविवाहित ) राजलक्ष्मीने दमयन्तीमें अनुरक्त राजा ( नल) के अनुरागको मानो अपने में सुरक्षित रखनेके लिए सपत्नीत्व (सौतपना ) को छोड़कर उस ( दमयन्ती) की समस्त इच्छाओंको पूरी करनेसे दमयन्तीको प्रसन्न किया। [लोकव्यवहार में भी पति जिस स्त्रीमें अनुरक्त रहता है, उसकी चिरकाल पूर्व विवाहित भी दूसरी स्त्री 'इसके अनुकूल रहनेसे पति मेरे ऊपर प्रसन्न रहेंगे' इस अभिप्रायसे सपत्नीभावका 64 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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