________________ 1018 नैषधमहाकाव्यम् / सामान्यतः अपरिचित-जैसा ही हूँ ( अथवा-अब ( आज ) से मैं तुम्हारा कोई नहीं हूँ अर्थात् मेरा तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रहा, नल हो आजसे तुम्हारे सब कुछ हैं ) इस प्रकार ( कहकर ) रोते हुए इस ( राजा भीम ) ने अपनी पुत्री ( दमयन्ती ) को छोड़ा अर्थात बिदा किय। // 117 // प्रियः प्रियकाचरणाच्चिरेण तां पितुः स्मरन्तीमचिकित्सदाधिषु / शंशाम सोऽम्बाविरहौर्वपावको न तु प्रियप्रेममहाम्बुधावपि / / 118 / / प्रिय इति / प्रियः नलः, प्रियकाचरणात् केवलप्रीतिजनकव्यवहारात् , शोकापनोदनाथं मनःप्रसादकव्यवहारं कृत्वेत्यर्थः, पितुः स्मरन्तीं पितरं स्मरन्तीम् इत्यर्थः, पित्र, शोचन्तीमिति यावत् / 'अधोगर्थदयेशां कर्मणि' इति कर्मणि षष्ठी / तां दम. यन्ती, चिरेण बहुकालेन, आधिषु पितृविरहजमनोव्यथासु विषये, अचिकित्सत् चिकित्सां कृतवान् , नलः सप्रेमसान्त्वनावचनेन दमयन्त्याः पितृविरहजदुःखं कथञ्चित् निवारयामास इत्यर्थः, कित निवासे इति धातोाधिप्रतीकारे अर्थ 'गुपतिजकिद्भयः सन्' इति सन् / तु किन्तु, सः अतिदुःसह इत्यर्थः, अम्बाविरहः मातृविच्छेद एव, औवपावकः वडवाग्निः, असह्यत्वादिति भावः। प्रियप्रेममहाम्बुधौ नलानुराग समुद्रेऽपि न शशाम न निववृते, नले अतिप्रियमाचरत्यपि तस्या मातृविरहजदुःखं नोपशान्तमित्यर्थः, कन्यानां पितृतो मातरि अनुरागाधिक्यात् तद्विरहो दुःसहः इति भावः / जलानलयोरेकवावस्थानविरोधेऽपि समुद्र वडवाग्नेरवस्थानं न विरुद्धं तस्य तत्रैव स्थानत्वादिति समुद्रे वडवाग्निर्न शान्त इति तात्पर्यम् // 118 // (प्रिय ( नल ) ने एकमात्र प्रिय करनेसे पिताका स्मरण करती हुई उस (दमयन्ती) के (पिताके विरहसे उत्पन्न ) दुःखको बहुत समय (दिनों ) में अर्थात् बहुत समय के बाद शान्त किया ( अथवा-प्रियने पिताका स्मरण करती हुई उसके दुःखको एकमात्र प्रिय करनेसे बहुत समयमें शान्त किया, अथवा-प्रियने बहुत दिनोंतक पिताका. शान्त किया ) / किन्तु ( सर्वविदित ) वह माताका वियोगरूपी वडवानल प्रिय ( नल ) के प्रेमरूपी महासमुद्र में भी नहीं शान्त हुआ (पाठा०-वैसा ही रहा ) / [ पुत्रियों के लिए पितृविरहकी अपेक्षा मातृ विरहके अधिक दुःखदायी होनेसे प्रियाचरणसे नलने यद्यपि दमयन्तीके पितृ-विरहजन्य दुःखको बहुत दिनों में दूर कर दिये, किन्तु मातृ-विरहजन्य दुःखको वे बहुत प्रेम करनेपर भी नहीं दूर कर सके / जिस प्रकार जलमें अग्निका रहना असम्भव होने पर भी समुद्र में वडवानल रहता ही है, उसी प्रकार नलके अधिकतम प्रेम करने पर भी दमयन्तीका मातृ-विरहजन्य दुःख बना ही रहा ] // 118 / / असौ महीभृबहुधातुमण्डितस्तया निजोपत्यकयेव कामपि | 1. 'तथास्त तन्मातृवियोगवाढवः स तु' इति, 'शशाम तन्मातृवियोगवाडवो न तु' इति च पाठान्तरम् /