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________________ 763 द्वादशः सर्गः। अपने म्यानरूपी बिलसे बैंचा ( तत्काल निकाला ) गया, चमकती हुई कालिमावाला, हाथमें लेकर कँपानेसे स्पष्ट कुटिल गतिवाला इस राजाका खङ्ग उन राजाओंके भयके लिए होता है; जिन्होंने युद्ध में अपनी अङ्गुलिरूपी सिद्ध (विषनाशनमें सर्वथा सफल ) महौषधि लताके गांठ ( पक्षा०–अङ्गुलिके = पोर) को अपने मुखमें डालकर विषवैद्यत्व का अवलम्बन नहीं किया है। [जिस प्रकार कोई व्यक्ति सिद्ध महौषधिकी गांठको मुखमें डाल लेता है तो उसे बिलसे निकला हुआ कुटिल चलनेवाला काला साँप नहीं दसता, उसी प्रकार जो राजालोग युद्ध में शस्त्र-त्यागकर मुखमें अङ्गुलि डाल करके इस राजाके शरणमें नहीं आते उन्हींको यह म्यानसे निकाले हुए उत्तम लोहा होनेसे चमकते हुए श्याम वर्णवाले हिलते हुए खग से मारता है। यह राजा सङ्ग्राममें लड़नेवाले शत्रुओंको खड्ग से मारनेवाला तथा शस्त्र त्यागकर मुखमें अङ्गुलि डाल करके शरणमें आये हुए शत्रुओंकी रक्षा करनेवाला है ] // 96 // यः पृष्ठं युधि दर्शयत्यरिभटश्रेणीषु यो वक्रतामस्मिन्नेव बिभर्ति यश्च किरति करध्वनि निष्ठुरः / दोषं तस्य तथाविधस्य भजतश्चापस्य गृह्णन् गुणं विख्यातः स्फुटमेक एष नृपतिः सीमा गुणग्राहिणाम // 17 // य इति / यः चापः कश्चित् सैन्यश्च, युधि अरिभटश्रेणीषु शत्रुवीरसमूहेषु विषये, पृष्ठं पश्वानागं, दर्शयति, धनुष आकर्षणेन सैन्यस्य चरणस्थलात् पलायनेन पृष्ठदर्शनं सम्भवतीति भावः, यः अस्मिन्नेव नृपे स्वस्वामिन्येव च विषये, वक्रतां ज्याकर्षणेन कोटिद्वयस्य वक्रत्वं, कृतघ्नत्वादिरूपानाजवञ्च, बिभर्ति, यश्च अस्मिन्नेव निष्ठुरः कठिनो निर्दयश्च सन् क्रूरध्वनि शत्रूणां भयावहटङ्कारशब्दम् अनेन सहाप्रियवाक्यञ्च, किरति विस्तारयतीत्यर्थः, दोषं भुजं, भजत आश्रयतः, 'भुजबाहू प्रवेष्टो दोः' इत्यमरः, दोषमकार्यमाचरतश्च, तथाविधस्य तस्य चापस्य तथाविधस्य तस्यसैन्यस्य च, गुणं ज्यां, पूर्वप्रदर्शितशौर्यजैत्रत्वादिकञ्च, गृह्णन् आकर्षन् वर्णयंश्च, एष नृपतिः कीकटेन्द्रः, एक एव गुणग्राहिणां मौर्वीग्राहिणां, धनु‘रिणामित्यर्थः, दोषं परित्यज्य गुणमात्रग्राहिणां सजनानामित्यर्थश्व, सीमा अवधिः, श्रेष्ठ इति यावत् , स्फुटं व्यक्तं, विख्यातः प्रसिद्धः / अत्र गुणग्राहिसीमात्वस्य पूर्ववाक्यार्थहेतुकत्वात् वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गम् अलङ्कारः // 97 // ____ जो युद्धमें शत्रु. शूरवीरोंके समूहोंमें पीठ दिखलाता (पक्षा०-युद्धसे भगता ) है, जो इसीमें कुटिलता ग्रहण करता अर्थात् दूसरेसे नहीं झुकाया जा सकता ( पक्षा०इसीके साथ कपटाचरण ) करता है, और निष्ठुर होकर क्रूर ध्वनि ( पक्षा०-कटु भाषण) करता है; दोष (बाहु, पक्षा०-दुर्गुण ) धारण करनेवाले वैसे धनुष (पक्षा०-उस प्रकारके दोषी) के गुण ( मौवीं, पक्षा०-उत्तम गुण ) को ग्रहण करता हुआ एकमात्र 48 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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