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________________ 736 नैषधमहाकाव्यम् / दृनारिप्राणवातामृतरसलहरीभूरिपानेन पीनं भूलोकस्यैष भर्ता भुजभुजगयुगं सांयुगीनं बिभत्ति / / 56 / / नम्रति / एण्या इमे ऐणेये 'ऐणेयमेण्याश्चर्माद्यमेणस्यैणमुभे त्रिषु' इत्यमरः, एण्या ढक , ते च ते नेत्रे च, ते इव नेत्रे यस्याः तस्याः सम्बुद्धिः, ऐणेय नेत्रे ! हे मृगशावाक्षि!, उपमान-पूर्वपदबहुव्रीहावुत्तरपदलोपः, नम्राणां पादप्रान्ते अवनतानां, प्रत्यर्थिपृथ्वीपतीनां पराजितशत्रुभूपानां, मुखान्येव कमलानि तेषु या म्लानता अप. मानजनितवैवयं, सैव भृङ्गजातस्य भ्रमरसमूहस्य, छाया नीलभाः, तस्या अन्तः पातेन मध्यगतत्वेन, स्वच्छनखे प्रतिफलनादिति भावः, चन्द्रायिता चन्द्रवदाचरिता मलिनमुखच्छायारूपकलङ्कसम्पत्तेरिति भावः, चरणनखश्रेणिर्यस्य तादृशः, भूलोकस्य भर्ता एषः राजा, दृप्तारिप्राणवाताः गर्वितशत्रुप्राणवायवः एव, अमृतरसस्य लहर्यः ऊर्मयः, तासां भूरिणा भूयसा, पानेन पीनं मांसलम् , अत एव संयुगे युद्धे, साधु सांयुगीनं युद्धे अपराजेयं, भुजभुजगयुगं हस्तरूपपन्नगयुगलं, बिभर्तीति, रूपकालङ्कारः / वायुपानेन यथा सर्पाः स्थूला जायन्ते तथा अस्य राज्ञः हस्तौ शत्रूणां प्राणवायुपानेन स्थूलौ सञ्जातौ इत्यर्थः; चरणपतितान् शत्रुनृपान् रक्षति गर्वितांश्च तान् मारयति इति भावः // 56 // ____ हे मृगनयनी ( दमयन्ती ) ! नम्र शत्रु राजाओं के मुखकमलकी मलिनतारूपी भ्रमरसे उत्पन्न ( अथवा-भ्रमर-समूहकी छाया अर्थात् शोभाके प्रतिबिम्बित ) होनेसे चन्द्रमाके समान आचरण करनेवाला है चरण-नखोंकी श्रेणी जिसकी ऐसा, भूलोकका रक्षक यह राजा अभिमानी शत्रुओंकी प्राणवायुरूप अमृतरस की तरङ्गोंके अधिक पान करनेसे मोटा तथा युद्ध में श्रेष्ठ (तीव्र शस्त्रप्रहार करनेवाला) वाहुरूप सर्पद्वयको धारण करता है / [ युद्ध में हारकर मलिन मुख किये हुए शरणागत शत्रु राना लोग इसके चरणों पर नम्र होकर प्रणाम करते हैं तो उनके मुखकी मलिनकान्ति कमलपर बैठे हुए भ्रमरों-जैसी मालूम पड़ती है और वह इसके चरणों के नखोंमें चन्द्रकलङ्क-जैसी शोभती है तथा इसके दोनों हाथ ( शस्त्र-प्रहारसे ) अभिमानी शत्रु राजाओंके प्राणोंका हरण करते ( उन्हें मारते ) हैं तो वे दो सर्प अमृत-रस-तरङ्गोंको पी रहे हैं ऐसा मालूम पड़ता है / सर्प का वायुरूपी अमृतरसका पानकर मोटा ( पुष्ट ) होना उचित ही है। यह राजा शरणागत शत्रुका रक्षक तथा अभिमानी शत्रुका प्राणनाशक है ] // 56 // अध्याहारः स्मरहरशिरश्चन्द्रशेषस्य शेषस्याहेर्भूयः फणसमुचितः काययष्टीनिकायः / दुग्धाम्भोधेर्मुनिचुलुकनत्रासनाशाभ्युपायः कायव्यूहः क जगति न जागर्त्यदः कीर्तिपूरः ? // 57 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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