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________________ द्वादशः सर्गः। ही बड़े रक्षकके यहां ) व्यर्थ गया; क्योंकि अभिमानी वह (शत्रु राजा) यह नहीं जानता है कि-'इस (मालय नरेश ) से दुर्गम पर्वतीय भूमि ( पक्षा०-पर्वतकुमारी दुर्गा अर्थात् पार्वती ) भी नहीं बचा सकती है। [ 'जिससे शरणागतको पर्वतपुत्री पार्वती (पक्षा०दुर्गम पर्वतीय भूमि भी ) नहीं बचा सकती; उससे अन्य कोई बड़ा घर (पक्षा०-रक्षक ) कैसे बचा सकता है ?' इस बातको नहीं जाननेवाला अभिमानी वह शत्रु युद्धसे भगकर अपने बड़े घर ( किला, पक्षा०-रक्षक ) के पास व्यर्थ ही गया। आत्मरक्षार्थ युद्ध से भग कर दुर्गम पहाड़में घुसे हुए या बड़े निजी रक्षकके शरणमें गये हुए भी शत्रुको यह मालय राजा मार डालता है ] / / 54 // अनेन राज्ञाऽर्थिषु दुर्भगीकृतो भवन्' घनध्वानजरत्नमेदुरः / तथा विदूराद्रिरदूरतां गमी यथा स गामी तव केलिशैलताम् / / 55 / / अनेनेति / अनेन राज्ञा अर्थिषु विषये दुर्भगीकृतः तुच्छीकृतः, यथेच्छम् अर्थिभिः उपादीयमानरत्नोऽपि यः अनेन राज्ञा उपेक्षितः इत्यर्थः, तथा घनध्वानजैः नवमेघशब्दोत्थैः, रत्नैः वैदूर्यः, मेदुरः पूर्ण एव, भवन् अतिव्ययेऽपि अक्षीणरत्न एव तिष्ठन् इत्यर्थः, विदूरादिः वैदूर्याचलः, तथा तेन प्रकारेण, अदूरताम् आसन्नतां, गमी गमिप्यन् , तथा सोऽद्रिः, तब केलिशैलतां गामी गमिष्यन् , 'भविष्यति गम्यादयः' इति गमिगाम्योः साधुत्वम् / 'न लोका-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया, अस्य राज्ञः नगर्याः अतिसान्निध्यात् बहुरत्नयुतः वैदूर्याचलः ते क्रीडाशैलो भविष्यति इति तात्पर्यम् // 55 // इस राजासे याचकों के विषयमें दरिद्र किया गया अर्थात् उपेक्षित (अत एव ) मेघध्वनिसे उत्पन्न रत्नोंसे पूर्ण होता हुआ ( पाठा०-होती हुई मेघध्वनियोंसे उत्पन्न रत्नोंसे पूर्ण ) विदूर ( अत्यन्त दूरस्थ, पक्षा०–'विदूर' अर्थात् 'रोहण' नामक ) पर्वत उस प्रकार समीपस्थ होगा, जिस प्रकार वह तुम्हारा क्रीडापर्वत बन जायेगा। [ 'विदूर' पर्वतमें मेघके गर्जनेसे उत्पन्न होनेवाले रत्नोंको पहले लोग इच्छानुसार वहांसे रत्न लाते थे; किन्तु अब यह 'मालय' राजा याचकोंको इच्छानुसार दान दे देता है, अत एव कोई भी 'विदूर' पर्वतसे रत्न लानेका कष्ट नहीं करता, इस कारण मेघके गर्जनेसे उस 'विदूर' पर्वतमें रत्नोंकी उत्पत्ति तो सर्वदा होती रही किन्तु उसमें-से रत्नों का व्यय नहीं हुआ और अत्यन्त दूरस्थ भी वह पर्वत बढ़ते-बढ़ते इतना समीप हो जायेगा कि तुम इस राजाका वरणकर वहां पर क्रीडाकरने लगोगी / / ये राजा बहुत दानी है, अत एव इसका वरण करो ] // 55 // नम्रप्रत्यर्थिपृथ्वीपतिमुखकमलम्लानताभृङ्गजात च्छायान्तःपातचन्द्रायितचरणनखश्रेणिरैणेयनेत्रे / 1. 'भवद्धत' इति पा०।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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