________________ द्वादशः सर्गः। 737 अध्याहार इति / स्मरहरशिरसि चन्द्रशेषस्य कलामात्रावशिष्टचन्द्रस्य, अध्याहारः शेषपूरकः, पञ्चदशकलासम्पादकः इति यावत् , एतेन कीर्तिपूरस्य स्वर्गव्यापित्वमायातम् ; शेषस्य अहेः अनन्तोरगस्य, शुभ्रकायस्येति भावः, भूयसां सहस्रसङ्ख्यकानां, फणानां समुचितः योग्यः, काययष्टीनां सहस्रसङ्ख्यकानां शरीराणां निकायः समूहभूतः इति यावत् ; फणसङ्ख्यकैः कायः भवितुमौचित्यात् अवशिष्टशरीरसम्पादक इति भावः, एतेन पातालव्यापित्वमायातम् ; दुग्धाम्भोधेः तीराम्भोधेः, मुनेः अगस्त्यस्य, चुलुकनात् गण्डूषेण ग्रहणात् , बासस्य नाशे अभ्युपाय उपायभूतः, कायव्यूहः कायसङ्घातः, क्षीराब्धेः प्रतिनिधिरित्यर्थः, पूर्व क्षीराब्धेरेका कित्वेन चुलुकग्रहणात् भयमासीत्, इदानीमेतत्कीर्तिपूरस्य पृथिवीव्यापित्वात् तच्छौक्ल्येन सर्वजलानां शुक्लतया दुग्धवत् प्रतीयमानत्वात् इदं क्षीराब्धेः वारि अन्यत् वारि वा इति निश्चेतुमशक्यत्वेन नास्ति अगस्त्यगण्डूषात् तादृशभय. मिति भावः; अदःकीर्तिपूरः अमुष्य यशोराशिः, क जगति न जागति ? त्रैलोक्ये एव जागतीत्यर्थः / अत्र कीर्तिपूरस्य त्रैलोक्यव्यापित्वासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेः तद्रपातिशयोक्तिः, सा च अस्य चन्द्रशेषाध्याहारत्वादिरूपकोत्थापितेति सङ्करः // 27 // कामनाशक शिवजीके मस्तकस्थ चन्द्र के शेष का अध्याहार, शेषनाग बहुत सी फणाओं के योग्य ( अतिविशाल या सहस्र संख्यावाला ) शरीर-यष्टि का समूह और मुनि ( अगस्त्य ऋषि ) के चुल्लूमें लेकर पान करने से उत्पन्न भयके सर्वतोमुखी उपाय क्षीरसमुद्र का शरीर-समूहरूप; इस राजा का कीर्ति-प्रवाह किस लोकमें नहीं जागरूक ( व्याप्त ) है ? अर्थात् तीनों लोकों ( क्रमशः स्वर्ग, पाताल और मृत्यु लोक ) में जागरूक है / [ इस राजा का कीर्ति-प्रवाह तीनों लोकों में व्याप्त हो रहा है। क्रमशः यथा-इसका कीर्ति-समूह शिवजीके मस्तकस्थ चन्द्र के शेष भाग (पन्द्रह तिथि होने से उनके अतिरिक्त सोलहवां भाग) का अध्याहार है / जिस प्रकार किसी अपूर्ण वाक्य की पूर्ति दूसरे पदका अध्याहारकर की जाती है, वैसे ही इसके कीर्ति-समूहका अध्याहार कर शिव-मस्तकस्थ चन्द्र के शेष भाग की पूर्ति ( 16 कलाओं की पूर्णता ) की जाती है, अतः स्वर्गमें इसका कीर्ति-समूह व्याप्त है / शेषनागकी सहस्र फगा और एक शरीर है, किन्तु सहस्र फणाओं के लिए सहस्र शरीरयष्टिका होना उचित है, अतः इस राजाका कीर्ति-समूह उस शेषनागकी सहस्र शरीर यष्टिके योग्य हो रहा है, इस प्रकार वह पाताल में भी व्याप्त है। मुनि अगस्त्यने चुल्लूमें समुद्र को लेकर पी लिया था, अत एव एक क्षीरसमुद्र को भी भय हो गया कि कहीं वे मुनि मुझे भी न पी जावें, किन्तु इस राजाके कीर्ति-समूह अनेकों क्षीरसमुद्र बनकर एक व्यक्तिद्वारा अनेक समुद्रों का पीना अशक्य होनेसे ( अथवा-उक्त कीर्ति-समूह द्वारा नीरक्षीरको एक रूप बना देनेसे 'कौन नीर है ? तथा कौन क्षीर है ?' इसका यथावत् निर्णय नहीं होनेसे ) क्षीरसमुद्र के उक्त भयको सर्वतोमुखी ( सर्वदा सफल ) उपाय बनकर दूर कर दिया, अतः उक्त कीर्ति-समूह भूलोकमें भी व्याप्त हो रहा है ] // 57 //