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________________ 1396 नैषधमहाकाव्यम् / वधूरपि स्वभर्तारं प्रत्यपि लज्जाधिक्यात् स्वशरीरं गोपयति, अतः सा भूमिः तत्सदृशी जाता इत्यर्थः। बहुनि नैवेद्यानि तत्र गृहे स्थापितानि आसन् इति निष्कर्षः // 27 // जिस ( देव-पूजा-गृह ) में मनोहर देवार्थ नैवेद्य रखनेसे अवकाश-रहित (तिल भी रखने के लिए स्थान-शून्य ) भूमि ने अपने पति (नल ) के प्रति भी ( लज्जावश शरीरको छिपाती हुई कुलाङ्गनाको भी तिरस्कृत कर दिया। [ जिस प्रकार कुलाङ्गना लज्जावश अपने शरीरका थोड़ा-सा भी भाग पतिको भी नहीं दिखलाना चाहती, उसी प्रकार उस देवपूजागृहमें देवार्पणके लिए रखे गये नैवेद्योंसे पृथ्वीमें तिल रखनेको भी स्थान नहीं बचे रहनेसे मालूम पड़ता था कि पृथ्वीने भी अपने पति (नल ) से अपने सम्पूर्ण शरीरको छिपा लिया है / उस देव-पूजा-गृहमें देवोंको चढ़ाने के लिए अनेक प्रकारके नैवेद्य रखे थे, जिनसे तिल रखने के लिए पृथ्वी लेशमात्र भी नहीं दिखलायी पड़ती थी ] // 27 / / यत्र कान्तकरपीडितनीलग्रावरश्मिचिकुरासु विरेजुः / गातृमूर्द्धविधुतेरनुबिम्बात् कुट्टिमक्षितिषु कुट्टमितानि // 28 // यत्रेति / यत्र सुरा वेश्मनि, कान्तस्य प्रियस्य चन्द्रकान्तमणेश्च / 'कान्तः प्रिये चन्द्रकान्ते' इति यादवः / करेण हस्तेन अंशुना च / 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्य. मरः / पीडितानां सुदृढाकर्षणेन व्यथितानाम स्पर्शन विकारं प्रापितानाञ्च, वर्णान्तरं प्रापितानामित्यर्थः। नीलग्राणाम् इन्द्रनीलमणीनाम् , रश्मयः दीप्तयः एव, चिकुराः केशाः यासां तादृशीषु, कुट्टिमक्षितिषु मणिनिबद्धभूमिषु, गातुः गायकस्य मूर्द्धविधुतेः शिरसकम्पनस्य,अनुबिम्बात् प्रतिबिम्बपतनात् हेतोः, कुट्टमितानि शिर:कम्पनरूपशृङ्गारचेष्टाविशेषाः, विरेजुः शुशुभिरे / अत्र भरतमुनिः-'केशस्तनाधरादिग्रहणेऽपि हर्षसम्भ्रमोत्पन्नं शिरः करकम्पनं कुट्टमितमिति विज्ञेयं सुखं विदुः' इति / मणिबद्धा भूमयो गायकाश्च यत्र सन्तीति भावः // 28 // जिस ( देव-पूजा-गृह ) में पति ( पक्षा०-चन्द्रमा, या सूर्य ) का कर ( हाथ, पक्षा०किरण ) छूए गये नीलम मणियोंकी किरणरूप केशवाली मणिबद्ध भूमिमें गायकोंके ( गाते समय ) कँपते हुए मस्तकके प्रतिबिम्बित होनेसे ( नायकके द्वारा किये जाते हुए दन्तक्षतका निषेध करने के लिए ) शिरःकम्पनके समान शोभने लगा। [गायकलोग गान करते हुए शिर हिलाते थे तो उसका प्रतिबिम्ब मणिमयी भूमिपर पड़कर ऐसा ज्ञात होता था कि पतिके चुम्बन या दन्तक्षत करने के लिए उद्यत होनेपर नायिका जिस प्रकार शिर हिलाकर निषेध करती है उसी प्रकार चन्द्र ( या सूर्य ) की किरणसे छुई गयी चन्द्रकान्त (या सूर्यकान्त ) मणिसे जड़ी गयी भूमिरूपिणी नायिका नीलममणिकी किरणरूप केश-समूहवाले शिरको कैंपाकर निषेध कर रही हो / देवपूजागृहमें गायक लोग देवोंके भजन शिर हिलाहिलाकर गा रहे थे और वहांकी भूमि मणिमयी थी] // 28 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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