________________ द्वाविंशः सर्गः। 1517 द्वारा नहीं नष्ट किये गये नक्षत्र-प्रकाशवाले एवं अपने को दृश्यमान घट-पादिस्वरूपवाले अन्धकारको प्रकाश माना; ( ऐसा यह अन्धकार है ) // 37 // दिने मम द्वेषिणि कीडगेषां प्रचार इत्याकलनाय चारीः / छाया विधाय प्रतिवस्तुलग्नाः प्रावेशयत्प्रष्टुमिवान्धकारः // 38 // दिन इति / अन्धकार हत्याकलनाय पामस्स्येन ज्ञानाथं प्रतिवस्तुलग्नाः पदार्थ. मात्रसंबद्धाः प्रतिच्छाया एवं चारोगूढार्थ वेदिकाश्चारनारी: विधाय चारपदं ताभ्यो दत्वा दिनं प्रति संप्रेष्य समागतास्तास्तत्रयवृतान्तं प्रष्टुमित्र पुनः प्रावेश यत् / निज. नैकध्यमित्यर्थात् / इति कि ? ममान्ध कारस्य द्वेषिणि माम पडमाने दिने विषये एषां वस्तनां कोहक प्रचारो विहरणं स्नेहादिव्यवहारश्चेति / दिवा प्रतिपदार्थ संबद्धा. छाया एव रात्री समागत्य मिलिता निजस्वामिन मन्धकार प्राविशन् / रात्रौ हि प्रकाशाभावे छाया अन्धकारेग सहै कीमवतोति तत्संबन्धादेव महानन्धकारःप्रतीयत इति भावः / एतेन प्रतिच्छायापि तम एवेति वर्णितम् / अन्योऽपि रात्रौ लोकस्थिति जातकामः स्त्रीणां सर्वत्र प्रवेष्टुं शक्यत्वाच्चारनाराः संप्रेष्य तत्रयं वृत्तान्तं विचार्य समागतास्ताः प्रष्टमात्मसविधं प्रवेश पति / छाया एत चारीः प्रतिवस्तुलग्नाविधायेति वा / चारपदं दत्वा पदिनः प्रत्येकं प्रेषयामास / अत एव ता दिने प्रतिवस्तुलग्ना दृश्यन्त इति वा / चारोः, पुंयोगान्ङ // 38 // 'मेरे शत्रु दिन में इन ( प्रकाशादि पदार्थों ) की कैसी स्थिति ( पक्षा०-लोकादिविषयक स्नेह ) है, इस बात को अच्छी तरह जानने के लिए अन्य कारने प्रत्येक पदार्थों के साथ संलग्न छाया ( परछाहो ) को दूतो बनाकर ( इस समय रात्रि में उक्त कार्यको पूराकर लौटी हुई) उन दूनीरूपिणो छायाओंको मानो उनले उक्त बात पूछने के लिए प्रवेश कराया है।' लोकमें भी कोई राजा आदि आने शत्रुओंके यहां रहने वाले अमात्यादिकी स्थिति जानने के लिए सर्वत्र सरलतासे पहुंचने वाली स्त्रियों को दूनी बनाकर भेज देता है, और जब वे वहांकी बातोंको जानकर लौटती हैं तब उनसे सब बातोंको पूछने के लिए अपने पास बुलाता ( प्रविष्ट कराता ) है। इससे दिन में प्रत्येक पदार्थ से सम्बन्ध रखनेवाली छाया ही रात्रिमें एकत्रित होकर अन्धकाररूप हो रही है, अत एव छाया भी अन्धकारका हो अंश है, अन्धकारसे मिन्न 'छाया' नामक कोई वस्तु नहीं है ] // 38 // इदानी चन्द्रोदयं वर्णयितुमुपक्रमते ध्वान्तस्य तेन क्रियमाणयेत्थं द्विषः शशो वर्णनयाऽथ रुष्टः / उद्यन्नुपाश्लोकि जपारुणश्रीनराधिपेनानुनयेच्छयेव // 39 // ध्वान्तस्येति / तेन नराधिपेन नलेन इत्थं क्रियमाणया द्विषः शत्रुभूतस्य ध्वान्तस्य वर्गनया रुष्टः ऋद्ध इव जपाकुसुमवइरुगा श्रीयस्य स उद्यन्नुदयं प्राप्नुवन् शशीतेनैव राज्ञाथानन्तरमनुनयेच्छयेव प्रसादनवाञ्छयेवौपाश्लोकि श्लोकः स्तोतुमा