________________ 1308 नैषधमहाकाव्यम् / तदनन्तर ( दमयन्ती कटाक्षोंसे मोहित होने के बाद ) उस (दमयन्ती ) के नेत्रप्रान्तमें चञ्चल कनीनिकाओं ( नेत्रकी पुतलियों) की स्फुरित होती हुई प्रभासे वशीभूत नल तन्वी (कृशाङ्गी दमयन्ती ) से बोले // 17 // कटाक्षकपटारब्ध- दूरलङ्घनरंहसा / दशा भीत्या निवृत्तं ते कर्णकूपं निरूप्य किम् ? // 18 // कटाक्षेति / हे प्रिये ! कटाक्षकपटेन अपाङ्गदर्शनव्याजेन, आरब्धम् उपक्रान्तम् , दूरलङ्घनरंहः विप्रकृष्टदेशोत्पतनवेगः यथा ताशया, ते तव, दृशा नयनेन, कर्णः अतिः एव, कूपः गतः तम् , निरूप्य निरीक्ष्य, भीत्या भयेन, कूपलङ्घनोपक्रमे तत्र पतनभिया इत्यर्थः / निवृत्तं किम् ? निरस्तं किम् ? दूरलङ्घनेच्छुरन्योऽपि जनः सम्मुखे कूपं तिष्ठच्चेत् तत्र पतनभिया स्वारब्धात् निवृत्तो भवतीति लोके दृश्यते / आकर्णविश्रान्तलोचना दमयन्तीति तात्पर्यम् // 18 // ___ कटाक्षके कपटसे दूर तक जाने के लिये वेगको आरम्भ की हुई अर्थात् सवेग चलती हुई तुम्हारी दृष्टि कानरूप कूएका निश्चयकर ( उसमें गिरनेके) भयसे लौट आयी क्या ? [ लोकमें भी दूरतक जानेके लिए वेगपूर्वक चलना आरम्भ करके कोई व्यक्ति मार्गमें कृपको देखकर उसमें गिरनेके भयसे जिस प्रकार वापस लौट आता है, उसी प्रकार कटाक्षके छलसे दूर ( कानसे भी आगे) तक जाने के लिए सवेग दृष्टि कर्णकूपको देखकर लौट आयी है क्या ? ऐसा ज्ञात होता है ] // 18 // सरोषाऽपि सरोजाक्षि ! त्वमुदेषि मुदे मम / ___ तताऽपि शतपत्रस्य सौरभायैव सौरभा / / 19 // सरोषेति / सरोजाति ! हे कमललोचने! सरोषाऽपि रुष्टाऽपि, त्वं भवती, मम मे, सुदे हर्षाय एव, उदेषि भवसि, नयनाननयोः तात्कालिकसुषमाया अतीवरमणीयत्वादिति भावः / तथा हि-तप्ता उष्णा अपि, सूर्यस्य इयं सौरी सूर्यसम्बन्धिनी / 'सूर्यागस्त्ययो:-' इत्यादिना यकारलोपः / सौरी च साभा प्रभा च सौरभा सूर्यप्रभा। 'स्त्रियाः पुंवत्-' इत्यादिना पुंवद्भावः / शतपत्रस्य कमलस्य, सौरभाय एवं सुरभिस्वाय एव, प्रस्फुटनद्वारा सुगन्धवितरणायवेत्यर्थः, न तु शोषगाय, भवतीति शेषः / दृष्टान्तालङ्कारः // 19 // __ हे कमलनयनी ( दमयन्ति ) ! क्रोधयुक्त भी तुम मेरे हर्षके लिए होती हो, क्योंकि उष्ण भी सूर्य-कान्ति कमलके (विकसित करके) सुगन्धिके लिए ही होती है ( शोषणके लिए नहीं ) / [ तुम्हारे क्रोध करनेपर भी आलिङ्गनादि करने के लिए उत्तम शोमा होनेसे मुझे आनन्द ही होता है ] // 19 / / 1. 'दृशाभ्येत्य' इति पाठान्तरम् /