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________________ सप्तदशः सर्गः / 1105 नलने इन्द्रका दूत बनकर दमयन्तीके पास जाकर निष्कपट हो दूतकार्य किया, अतः नलके समान कोई धीर नहीं है ऐसी ) कीतिको तथा वरों (14 / 70-91 ) को देने के लिए ही ( स्वयंवरमें ) गये थे। ( दमयन्तीको वरण करने के लिए नहीं गये थे। अगम्भीरग्राहिणी (गूढाभिप्रायको नहीं समझनेवाली तुझ-जैसे लोगोंकी ) बुद्धि धीरों ( इन्द्रादि-जैसे गम्भीरा. शयवालों ) की बुद्धिकी चतुरताको नहीं जानती है / [ अथवा-हे अधीर ! अगम्भीरग्राहिणी बुद्धि ( इन्द्रादि-जैसे चतुर लोगोंके ) .बुद्धिचातुर्यको नहीं जानती है। अथवा-हे धीर ! ( काकुसे हे अधीर ! ) गम्भीरग्राहिणी (गूढार्थको समझनेवाली ) धीरोकी चतुरताको नहीं जानती ? अर्थात् जानती है, अतः तुम्हारी बुद्धि गम्भीरग्राहिणी नहीं है, इससे धीर इन इन्द्रादि देवों की बुद्धिके चातुर्यको नहीं समझती। यही कारण है कि तुम ऐसा कह रहे हो ] // 133 // वाग्मिनी जडजिह्वस्तां प्रतिवक्तमशक्तिमान् / लीलावहेलितां कृत्वा देवानेवावदत् कलिः / / 134 // वाग्मिनीमिति / जडजिह्वः 'अपगल्भवाक, वाक्प्रयोगानभिज्ञः इत्यर्थः / कलिः कलियुगम्, वाग्मिनी प्रगल्भवाचम् , तां भारती सरस्वतीम् , प्रतिवक्तं प्रत्युत्तरं दातुम् , अशक्तिमान् असमर्थः सन् , लोल्या विलासेन, उपेक्षाप्रदर्शनरूपचेष्टितविशेषेण इत्यर्थः / अवहेलिताम अवज्ञाताम् , स्त्रियमित्येवमवधीरितामित्यर्थः / कृत्वा विधाय, अगणयन्निवेत्यर्थः / देवान् इन्द्रादीन् एव, अवदत् उवाच // 134 // जड जिह्वावाला ( अप्रगल्भ वचन ) काल वाग्मिनी (श्रेष्ठ वचन बोलनेवाली) उस ( सरस्वती देवी ) से प्रत्युत्तर देने में असमर्थ होता हुआ उपेक्षा दिखानेसे अपमानित (स्त्रीकी बातोंका उत्तर देना पुरुष के लिए उचित नहीं है मानों इस बुद्धिसे सरस्वती देवीको उत्तर देनेमें अवमानित ) करता हुआ देवोंसे ही बोला // 134 / / प्रौछि वाञ्छितमस्माभिरपि तां प्रति सम्प्रति / तस्मिन नले न लेशोऽपि कारुण्यस्यास्ति नः पुनः / / 135 // प्रौन्छीति / सम्प्रति अधुना, अस्माभिः अपि तां भैमी प्रति, वान्छितम् इच्छा. प्रौन्छि प्रोन्छितम् , परित्यक्तमिति यावत् / उच्छतेः कर्मणि लुङ / पुनः किन्तु, तस्मिन् तादृशदुष्कार्यकारिणि इत्यर्थः / नले नैषधे, यः अस्माकं, कारुण्यस्य कृपायाः, लेशः बिन्दुमात्रम् अपि, न अस्ति नैव विद्यते // 135 // इस समय हमने भी उस ( दमयन्ती) से इच्छाको हटा लिया अर्थात् हम भी दमयन्ती को नहीं चाहते, किन्तु ( अपमान करनेसे अपराधी ) नलके प्रति हमारी करुणाका लेश भी नहीं है अर्थात् नलपर मैं लेशमात्र भी करुणा नहीं करता हूं, ( अतः नलसे बदला लेने के लिए आपलोग मेरी सहायता करें)॥ 135 // 'वृत्ते कर्मणि कुर्मः किं ? तदा नाभूम तत्र यत् / कालोचितमिदानीं नः शृणुतालोचितं सुराः!॥ 136 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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