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________________ द्वादशः सर्गः। नृपस्य, अयं करः चत्वार्यङ्गानि हस्त्यादीनि येषां तादृशानां सैन्यानां समरेषु त्वङ्गतां सञ्चरतां, तुरङ्गाणां शुरैः, करणः, सुग्णासु कृष्टासु, क्षितिषु यशःक्षोणीजस्य कीर्ति. क्षस्य, बीजानां व्रज समूह. क्षिपन् , वपन्निव इत्यर्थः, स्थित इति शेषः, इति कैः जनैः न उन्नीतः ? न उत्प्रेक्षितः ? गजकुम्भस्थमुक्तानां श्वेतत्वात् क्षुद्रत्वाञ्च यशो. तृक्षबीजस्वरूपत्वेन तेषाञ्च रणभूमौ निपातनात् वपनत्वेन चोत्प्रेक्षणादत्रोत्प्रेक्षाद्वयम्।। किन लोगों ने इस (मिथिलानरेश ) के इस ( प्रत्यक्ष दृश्यमान ) तलवारसे काटी गयी शत्रुओंके गज-समूहके कुन्भस्थित हड्डियों के समूहरूप गढ में स्थित मोतियों के समूहको फेंकनेवाले हाथको चतुरङ्गिणी ( गजदल, यदल, रथदल और पैदल ) सेनावाले युद्ध में दौड़नेवाले घोड़ों के (हेर अस्त्र-विशेष ) के समान तीक्ष्ण खुरोंसे क्षुण्ण अर्थात् जोती गयी भूमिमें यशोरूपी वृक्षों के बीज-समूहको बोते हुएके समान नहीं तर्क किया है। [जिस प्रकार कोई किसान खेतको जोतकर उसमें पेड़ों के बीजोंको बोता है, उसी प्रकार यह मिथिला नरेश युद्ध में चतुरङ्गिणी सेनावाले युद्ध में दौड़ते हुए घोड़ों के तीक्ष्ण खुरोंसे कटनेले जोती हुई-सी भूमिमें तलवारले कटकर शत्रुगज-समूहों के कुम्भोंसे निकलते हुए मोतियोंको युद्धदर्शक लोग ऐसा मानते हैं मानो इस राजाके हाथ यशोरूप पेड़ोंके बीजोंको बो रहे हैं / अतिशय श्वेत मोतीरूपी बीजोंसे अतिशय श्वेत यशोरूपी पेड़ोंका उत्पन्न होना उचित ही है / शत्रुओंके गज-समूहके कुम्भस्थल पर तलवार का प्रहार करने पर उनसे गजमुक्ताएं निकलती हैं और इससे इस मिथिलानरेशका यश बढ़ता है ] // 66 // अथिभ्रंशबहूभवत्फलभरव्याजेन कुब्जायित: सत्यस्मिन्नतिदानमाज कथमप्यास्तां स कल्पद्रमः / आस्ते निर्व्ययरलसम्पदुदयोदयः कथं याचक श्रेणीवर्जनदुर्यशोनिबिडितबीडस्तु रमाचलः ? // 67 / / अर्थीति / अस्मिन् राझि, अतिदानभाजि अतिदानशौण्डे सति, मनसा अकल्पितमप्यर्थं ददति सतीत्यर्थः, सः प्रसिद्धः, कल्पद्रुमः, मनःकल्पितार्थमात्रप्रदः कल्प. वृत्तः, अर्थिनां भ्रंशेन असद्भावेन, बहूभवतः व्ययाभावादुपचीयमानस्य, फलभरस्य व्याजेन छलेन, कुब्जायितः कुब्जीभूतः सन् , वस्तुतस्तु लजयवेति भावः, लोहितादेराकृतिगणत्वात् क्यषि कर्तरि क्तः, कथमपि कृच्छ्रण, आस्तां निम्नतया अन्यैरदृष्टः त्वात् कथमपि लज्जावरणसम्भवादिति भावः; किन्तु निय॑याणां व्ययरहितानां, रत्नसम्पदाम् उदयेन बृद्धया, उदग्रः उच्छ्रितः, उच्चशिखरः इति भावः, रत्नाचलो रोहणाद्रिस्तु, याचकणीभिः कीभिः, वर्जनेन परिहारेण, यत् दुर्यशः तेन निबिडितवीडो घनीकृतलजः सन् , कथमास्ते ? कथं तिष्ठति ? उच्चतया स्थित्या सदृष्टत्वात् लज्जासंवरणोपायासम्भवादिति भावः / अत्र द्रमशैलयोः लज्जाऽसम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 67 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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