________________ 744 नैषधमहाकाव्यम् / महादानी ( कल्पनातीत दान करनेवाले ) इस राजाके रहनेपर याचकों के अभावसे अधिक होते हुए फलों के भारके बहानेसे कुबड़ा ( नम्र ) बना हुआ कल्पवृक्ष किसी प्रकार रहे, किन्तु व्ययरहित रत्नसम्पत्तिसे उन्नत तथा याचक-समूहके निषेधसे ( उत्पन्न ) अपयशरूपी बढ़ी हुई लज्जावाला रत्नाचल अर्थात् 'रोहण' नामक पर्वत कैसे रहता है ? / [ यह राजा याचकों को कल्पनातीत दान देता है, अतः कल्पित दान देनेवाले तथा स्वर्ग में होनेसे दूरस्थ कल्पवृक्षके पास याचकों ने जाना छोड़ दिया, इस कारण उसके फल इतने अधिक हो गये कि वह उनके भारसे झुक गया, परन्तु वास्तविकमें 'यह राजा मुझसे भी अधिक दान देता है इस लज्जाके कारण ही वह कल्पवृक्ष झुका ( नम्रमुख ) हुआ है, यह किसी प्रकार अर्थात् स्वर्गस्थ एवं नम्रमुख होनेसे वैसा होकर रहना उचित भी है; किन्तु कभी ब्यय न करने के कारण 'रोहण' पर्वतके रत्न बढ़ते गये और उसका शिखर ऊँचा हो गया और भूलोकमें रहकर भी याचकों को निषेध करने ( दान न देने ) से उसका बहुत अपयश हुआ जो महालज्जाकर था, अतः भूलोकस्थ अर्थात् समीपस्थ होने पर भी याचकोंको दान नहीं देनेसे लज्जाकर अपयशवाला 'रोहण' पर्वत व्ययाभावके कारण बढ़े हुए रत्नोंसे उन्नत शिखर होकर रहता है अर्थात् निर्लज्ज होकर मस्तक ऊँचा किये रहता है, यह उसके लिये अनुचित है। यह मिथिलानरेश कल्पवृक्ष एवं रत्नाचलसे भी अधिक दानी है ] // 67 // सृजामि किं विघ्नमिदन्नृपस्तुतावितीङ्गितैः पृच्छति तां सखीजने / स्मिताय वक्त्रं यदवक्रयद् बधूस्तदेव वैमुख्यमलक्षि तन्नृपे / / 68 / / सृजामीति / अथ सखीजने तां भैमीम्, इदन्नपस्य एतन्नपस्य, स्तुतौ विघ्नं सृजामि किम् ? इतीङ्गितैः चेष्टितैः, पृच्छति सति वधूः भैमी, स्मिताय स्मितं कर्त्त, क्रियार्थेत्यादिना चतुर्थी, वक्त्रं अवक्रयत् वक्रीचकार, इति यत् तत् वक्रीकरणमेव, तन्नपे तस्मिन् नृपे, वैमुख्यं नैस्पृह्यम्, अलक्षि लक्षितम् // 68 // 'इस राजाकी प्रशंसामें विघ्न करूँ क्या ?' यह सङ्केतके द्वारा दमयन्तीसे सखीके पूछने पर दमयन्तीने मुस्कराने के लिए जो मुख फेरा उसे ही उस राजा (मिथिलानरेश ) में ( वहांके दर्शक, राज-समूह, सखी-समूह या उस राजाने ) विमुखता ( अनादरसे मुख फेरना) लक्षित किया / ( पाठा०-उसे ही "उस राजामें अनादरजन्य मुखमलिनता लक्षित किया ) [ दमयन्तीके मुख फेरनेसे लोगोंने 'इस मिथिलानरेशको भी यह नहीं चाहती' ऐसा समझ लिया ] // 68 // दृशाऽथ निर्दिश्य नरेश्वरान्तरं मधुस्वरा वक्तमधीश्वरा गिराम् / अनूपयामास विदर्भजाश्र तौ निजास्यचन्द्रस्य सुधाभिरुक्तिभिः / / 6 / / दृशेति / अथ मधुस्वरा मधुरकण्ठी, गिरामधीश्वरा सरस्वती, नरेश्वरान्तरं राजा१. 'वैलच्य' इति पा० / 2. 'अपूपुरगीमभुवः श्रुती पुनः' इति पा० /