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________________ द्वाविंशः सर्गः। , 1576 सौन्दर्यसे तुम्हारे मुखको तथा वर्तनमें लगे हुए पोछनेसे मकिन शेष सौन्दर्यसे जिस चन्द्र माको रचा, उस (चन्द्रमा) की रेखा (सोलहवां भाग अर्थात् एक कला) अपनी उत्कृष्ट शोभासे (इस शङ्करजीके मस्तकसे मैं ही श्रेष्ठ हूं ऐसा) अहङ्कारकर शङ्करजीकी शिरोमणि बन गयी और कुमद तथा कमलने जो उस चन्द्रमाका चरण (पक्षा०-किरण पडनेसे चरणस्थानीय जल ) का स्पर्श किया (उस पुण्यसे ) लक्ष्मीका निवास स्थान (मद शोभायुक्त तथा पद्म लक्ष्मीको कमलालया होनेसे लक्ष्मीके रहनेका स्थान) हो गये। अथवा-कुमुदने जो चन्द्रमाका चरण (प्रतिबिम्बस्पृष्ट जल ) का. स्पर्श किया और कमल उस कुमुद के संसर्ग मात्रसे लक्ष्मीका निवासस्थान हो गया / अथवा-उक्तरूप चन्द्रमाके स्थान (शिवमस्तक ) को पूजाकालमें कुमुद तथा कमलने जो स्पर्श किया, उससे वे हक्ष्मीका निवास स्थान हो गये। अथवा-उक्तरूप चन्द्रमासे शोमित उस (शिवजी) के चरणका स्पर्श कुमुद तथा कमल ने पूजाकालमें किया अर्थात् उक्तरूप शिवजीके चरणों पर जो वे पूजामें चढ़ाये गये, अतः वे लक्ष्मीका निवासस्थान हो गये / भाव यह है कि सम्पूर्ण सौन्दर्य रचे गये तुम्हारे मुखका वर्णन करना तो सर्वथा अशक्य ही है, क्योंकि बर्तन में लगे मलयुक्त सौन्दर्य-शेषसे बनाये गये चन्द्रमा का निष्कलङ्क सोलहवां भाग भी शिवजीके मस्तक की अपेक्षा अपनेको श्रेष्ठ मानकर उनके शिरपर चढ़ गया, और उस चन्द्रमाके प्रतिबिम्बस्थान नरू रूप चरण, या-उक्त चन्द्रमासे युक्त शिवजीके चरणके स्पर्शमात्रसे कुमद तथा कमल लक्ष्मीके निवासस्थान बन गये। लोकमें भी कोई श्रेष्ठ व्यक्ति हीनके ऊपर अहङ्कारपूर्वक निवास करता है, तथा श्रेष्ठ व्यक्तिके चरणस्पर्शसे हीनतम व्यक्ति भी लक्ष्मीपात्र ( अतिशय धनवान् , या-शोमान्वित ) बन जाता है / इस कारण तुम्हारे मुखके सौन्दर्यका वर्णन भला कौन कर सकता है ? ] // 143 // .. सपीतेः सम्प्रीतेरजनि रजनीशः परिषदा परीतस्ताराणां दिनमणिमणिग्रावमणिकः। प्रिये ! पश्योत्प्रेक्षाकविभिरभिधानाय सुशकः सुधामभ्युद्धत्तु धृतशशकनीलाश्मचषकः // 144 // सपीतेरिति / हे प्रिये संप्रीतेस्ताराणामेवान्योन्यं सम्यग्या प्रीतिः सौहार्द तस्मा तोर्या सपीतिः सह पानं, सुहृदो हि सह पानं कुर्वन्ति तस्माद्धेतोः, यद्वा सहपाना तोर्या सम्यक् प्रीती रुच्यभिवृद्धिः, तस्माद्धेतोस्ताराणां परिषदा सङ्घन परीतः समन्ताद्वयाप्तोऽयं रजनीशो दिनमणिमणिः सूर्यकान्तमणिस्तस्य ग्रावाशिला तया घटि. तोऽतिधवळः स्थूलंः पेयद्रव्याधारभूतो मणिकोऽरिक्षर एवाजनिसंभूतः विधिना तारा. परिषदा वा व्यरचीति पश्य / कीदृशः? सादृश्येन वस्त्वन्तरसंभावनारूपायामुत्प्रेक्षायां विषये कविभिविशिष्टसंभावनाचतुरैः श्रीहर्षादिभिर्महाकविभिस्तारापरिषदेव सुधाम. भ्युदतुं धृतो यो मध्यस्थितः शशकः कलङ्कः स एव नीलारमा नीलमणिस्तेन घटितं 16 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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