________________ 816 नैषधमहाकाव्यम् / हुई यह दमयन्ती ( वास्तविक ) नलमें रूप ( सौन्दर्य ) से नहीं अनुरक्त हुई, (क्योंकि यदि वह रूपमात्रसे वास्तविक नलमें अनुरक्त होती तो नलके समान ही रूप धारण किये हुए इन्द्रादि देवोंको नहीं छोड़ती। परन्तु ) दूसरे जन्ममें प्राप्त कर्मविपाकसे उत्पन्न किसीका अनुराग किसीमें उत्पन्न हो जाता है। (अत एव वह दमयन्ती भी पूर्वजन्मकृत कर्मके विपाकसे ही वास्तविक नलमें अनुरक्त हुई ) // 38 // क्क प्राप्यते स पतगः परिपृच्छयते यः प्रत्येमि तस्य हि पुरेव नलं गिरेति / सस्मार सस्मरमतिः प्रति नैषधीयं तत्रामरालयमरालमरालकेशी // 36 // ___ अथास्याश्चिन्तासञ्चारिणीमाह-क्वेति / सस्मरमति मदनपीडितचित्ता, अरालकेशी कुटिल केशी, 'स्वाङ्गाञ्चोपसर्जनादसंयोगोपधात्' इति विकल्पात् ङीष, भैमीति शेषः, स पूर्वष्टः नलवार्ताप्रद इत्यर्थः, पतगो हंसः, व कुत्र, प्राप्यते ? किमर्थम् ? यः पतगः, परिपृच्छयते, नलम् इति शेषः, एषु मध्ये को नल इति विश्वास्यतया जिज्ञास्यते इत्यर्थः; प्रश्न फलमाह-पुरेव पूर्वमिव, यस्य गिरा हि निश्चयेन नलं प्रत्येमि विश्वसिमि, इति इत्थं, तत्र सभायां, नैषधीयं प्रियस्य दूतभूतमिति यावत् , अमरालयमरालं स्वर्लोकहंसं, प्रति उद्दिश्येत्यर्थः, सस्मार; दुर्लभार्थप्रार्थकाः खलु कार्यकातरा इति भावः // 39 // ___ कामपीडित चित्तवाली ( या अधीर ) तथा कुटिल केशोंवाली ( वह दमयन्ती) 'वह पक्षी कहां मिलेगा ?' जिससे मैं ( इनमें कौन सत्य नल है यह ) पूछती और उसके वचनसे पहले (9 / 128) के समान नलको पहचानती' इस प्रकार उस स्वयंवरसमामें नल-सम्बन्धी ( पाठा०–प्रिय नलके दूत ) स्वर्गीय हंसका स्मरण किया // 39 // एकैकमैक्षत मुहुर्महताऽऽदरेण भेदं विवेद न च पञ्चसु कश्चिदेषा / शङ्काशतं वितरता हरता पुनः स्म उन्मादिनेव मनसेयमिदं तदाह // 40 // ___एकैकमिति / एषा भैमी, महता आदरेणकाग्रयण, मुहुः एकैकमक्षत, किन्तु पञ्चसु मध्ये कञ्चित् भेदं विशेषञ्च न विवेद, अत एव शङ्काशतं वितरता जनयता, पुनः तत् शङ्काशतं, हरता निवर्त्तयता, इत्थञ्च उन्मादिनेव उन्मादवतेव, मनसा उपलक्षिता इयं दमयन्ती, इदं वक्ष्यमाणविकल्पजातम्, आह स्म 'लट् स्मे' इति भूते लट् // 40 // ___ इस ( दमयन्ती ) ने बड़े प्रयत्न ( पक्षा०-भय ) से एक-एक ( इन्द्रादि पांच नलोंमें से प्रत्येक ) को देखा, ( किन्तु ) पाँचोंमें कोई भेद नहीं जान सकी; फिर सैकड़ों काओंको उत्पन्न तथा दूर करते हुए मानो उन्मादयुक्त चित्तसे यह (13 // 4153 ) कहने लगी [पतिव्रता दमयन्ती पांच पुरुषोंका निरीक्षण कर रही है, यह उचित नहीं, ऐसा लोगों के मनमें भावना हो सकती है इस विचारसे नलरूपधारी उन पांचोंको भयसे तथा इनमें से 1. 'किल नैषधीयम्' इति 'प्रियदूतभूतम्' इति च पाठान्तरम् /