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________________ त्रयोदशः सर्गः। मेरा अभिलषित वास्तविक नल कौन-सा है ? यह निश्चय कर वरण करनेके लिए बड़े प्रयत्नसे दमयन्तीके द्वारा उन पांचोंका निरीक्षण करना उचित ही है / उन्मादी व्यक्ति भी भय या आदरसे किसी को देखता है तो व्यवस्थित चित्त होने के कारण कोई निर्णय नहीं कर सकने के कारण उसके मन में सैकड़ों शङ्काएं उत्पन्न एवं नष्ट हुआ करती हैं और वह मनमें ही कुछ सोचता रहता है; दमयन्तीने भी उसी प्रकार मनमें ही वक्ष्यमाण वचन कहे // ] अस्ति द्विचन्द्रमतिरस्ति जनस्य तत्र भ्रान्तौ हगन्तचिपिटोक णादिरादिः। स्वच्छोपसर्पणमपि प्रतिमाऽभिमाने भेदभ्रमे पुनरमीषु न मे निमित्तम् // ___ अथ आसर्गसमाप्तेश्चिन्तानुभावविकल्पावाह-अस्तीत्यादि / द्विचन्द्रमतिः द्वौ चन्द्राविति बुद्धिः, एकस्मिन् चन्द्रेऽनेकत्वावगाहिनी / भ्रमबुद्धिरिति यावत् , अस्ति प्रसिद्धा अस्ति, किन्तु तत्र द्विचन्द्रग्राहिण्यां भ्रान्ती, जनस्य भ्राम्यज्जनस्य, दृगन्त. चिपिटीकरणं गन्तयोः चक्षःप्रान्तयोः, चिपिटीकरणम् अङ्गुल्या निपीडनं, तदादिः तत्प्रभृति, आदिमूलकारणम् , अस्ति, तथा प्रतिमाऽभिमाने प्रतिबिम्बभ्रमे, स्वच्छोपसर्पणं काचस्फटिकादिसन्निधानमपि, आदिरस्तीति शेषः, पुनः किन्तु, मे मम, अमीषु पञ्चसु विषये, भेदभ्रमे निमित्तं न, अस्तीति शेषः, अत एकस्मिन् नले बहनलभ्रान्तिः कथञ्चिदपि न सम्भवति, तस्मादेते नलभिन्नाः केचन भविष्यन्तीति भावः॥४१॥ मनुष्यकी-'दो चन्द्र है' ऐसी बुष्टि होती है, उस भ्रममें आंखके प्रान्तको अङ्गुलि आदिसे चिपटा करना ( दबाना ) आदि ( काच-कामलादि दोष ) कारण है और प्रतिविम्ब ( परछाही ) के भ्रममें भी स्वच्छ ( दर्पण, स्फटिक आदि निर्मल पदार्थ ) के पास होना कारण है; किन्तु इनके भेदभ्रम ( एक नलमें पांच नलके ज्ञानरूप भ्रम ) में कारण नहीं है। [ 'आँख के किनारेको अङ्गलि आदिसे दबाने या कामला आदि रोगके कारण मनुष्य एक चन्द्रमाको भी दो चन्द्रमा मानने लगता है तथा दर्पण-स्फटिक आदि अत्यन्त निर्मलवस्तु के समीप रखनेपर उसमें दूसरी वस्तु के प्रतिबिम्बको देखकर यह बाहर रखी हुई ही वस्तु है या दो वस्तु हैं ऐसा भ्रम हो सकता है, इस प्रकार उक्त दोनों भ्रमों में क्रमशः आंखके प्रान्तका अङ्गलिसे दबाना आदि तथा दर्पणादि स्वच्छ वस्तुओं के समीप रहना आदि कारण हैं; किन्तु यहां पर मैं एक नलको ही जो पाँच नल देख रही हूं इस भ्रममें कोई कारण नहीं है, अत एव ये पाँच नल नहीं हो सकते, इस प्रकार उत्पन्न हुई शंकाओंको दमयन्तीने दूर कर दिया ] // 41 // किं वा तनोति मयि नैषध एव काव्यव्यूह विधाय परिहासमसौ विलासी ? विज्ञानवैभवभृतः किमु तस्य विद्या सा विद्यते न तुरगाशयवेदितेव ? // 42 / / किमिति / वा अथवा, विलासी विलसनशीलः, 'वो कषलसकत्थरम्भः' इति 1. 'नो' इति पाठान्तरम्। 2. 'भुवः' इति पाठान्तरम्।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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