________________ एकविंशः सर्गः 1417 शेषः / अस्मान् नलादीन् , पायाः रक्षः। 'पा रक्षणे' इत्यस्य लिडो मध्यमपुरुषेकवचनम् // 62 // ( ऐसा ( 21 / 61 ) वामनके कहनेपर परमभक्त बलिने कहा-'हे भगवन् ! अपने ) अभिप्राय ( दान लेने की इच्छा ) को क्यों प्रकट करते हो ?' ( अथवा-दान लेने के लिए हाथको सम्यक् प्रकारसे क्यों फैलाते हो?, अथवा-आः ! हाथको क्यों फैलाते हो ? ) अर्थात आपको वैसा करना उचित नहीं; क्योंकि 'मैं आपके चरणों के लिए सब ( स्वर्णादि सम्पत्ति या-समस्त संसार) को देना चाहता हूं' इस प्रकार बलिसे कहे गये है प्रणतपावन ! वामन ! आप हम लोगोंकी रक्षा करे। [ जगत्पूज्य होनेसे चरणों में ही सब कुछ समर्पित करने के लिए इच्छुक भक्तराज बलिको अपने सामने दान लेनेके लिए वामनरूपधारी विष्णुभगवान्को हाथ फैलानेसे निषेध करना उचित हो है ] // 62 / / / क्षत्रजातिरुदियाय भुजाभ्यां या तवैव भुवनं सृजतः प्राक् / जामदग्न्यवपुषस्तव तस्यास्तौ लयार्थमुचितौ विजयेताम् / / 63 // क्षत्रेति / हे विष्णो ! प्राक पुरा, भुवनं जगत् , सृजतः सृष्टिं कुर्वतः, तव भवत एव, भुजाभ्यां दोभ्यां सकाशात् , या चत्रजातिः क्षत्रियसमूहः, उदियाय उद्भूता, 'बाहू राजन्यः कृतः' इति श्रुतेः, तस्याः क्षत्रजातेः, लयाथ विनाशार्थम् , उचितौ * योग्यौ. 'नाशः कारणलयः' इति सावयादिसिद्धान्तात् कार्य हि कारणे एव लीनं भवतीति सर्वत्र दर्शनाच्च कार्यभूतां क्षत्रजाति प्रति तव भुजयोरेव कारणत्वात् क्षत्रजातेस्तव भुजयोरेव लीनत्वस्यौचित्यादिति भावः / जामदग्न्यः परशुरामः, वपुः शरीरं यस्य तस्य परशुरामदेहधारिणः, तव ते, तो भुजौ, विजयेतां सर्वोत्कर्षण वर्त्तताम् / विपराभ्यां जेस्तङादेशः // 3 // ( अब तीन श्लोकों ( 21163-65) से परशुरामावतारकी स्तुति करते हैं--) पहले सृष्टि करते हुए (ब्रह्मरूप) तुम्हारे ही बाहुद्यसे जो क्षत्रिय जाति उत्पन्न हुई; उस (क्षत्रिय जाति ) के लय ( नाश ) के लिए योग्य परशुरामशरीरधारी आपके बाहुदय विजयी होवें। [ 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासोद्धाहुभ्यां. राजन्यः कृतः' इस वेदवचनके अनुसार ब्रह्माके बाहुसे उत्पन्न क्षत्रियका उत्पत्तिकारणभूत उक्त बाहुद्वयमें ही 'नाशः कारणलयः' ( कारणमें कार्यका लय होना ही नाश है ) इस साङ्यसिद्धान्त तथा भरतवचनके अनुसार लीन होना उचित है / जातिको नित्य माननेवालों के सिद्धान्तमें यहाँ क्षत्रजातिका आविर्भाव-तिरोभाव समझना चाहिये / [ यहाँ परशुरामावतार लेकर क्षत्रिय जातिका संहार करना अवतारका प्रयोजन कहा गया है ] // 63 // 1. तच्च भरतवचनं यथा 'अद्भयोऽग्निब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् / एषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति // ' इति /