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________________ ऊनविंशः सगः। 1285 स्त्वष्टा' इत्यमरः / कुन्दे शाणयन्त्रे / 'शाणः कुन्दश्च यन्त्रकम्' इति यादवः / धृता वा तक्षणाय स्थापिताः इव, न किम् ? कराङ्गुल्य इति शेषः / अपि तु पृता एव इत्यर्थः / पुनः पुनः घर्षणेन तदुत्थैः सूचम सूचमांशैःघूर्णमानैरिव दृश्यते, अतः भ्रमणं युज्यते इति भावः / पुरा किल स्वर्गे सन्ध्यादेव्या सूर्यभार्यया दुःसहस्पर्श सविता. रमालोक्य प्रार्थितः विश्वकर्मा तं शाणयन्त्रोल्लेखनेन सन्तचय सन्तच्य सुखस्पर्श चकारेति पौराणिकी कथाऽत्रानुसन्धेया // 54 // (हे राजन् ! ) आप महलोंकी वलभियोंके गवाक्ष-विवरों ( जङ्गलों के बिलों ) से प्रविष्ट हुई कमलनालतुल्य इन सूर्यकिरणरूपी ( अथवा-सूर्यके करों = हाथोंको) अङ्गुलियोंको शीत्र नेत्रका पाथेय बनाइये अर्थात् आदरपूर्वक देखिये, घूमते हुए त्रसरेणु-समूहोंसे वेष्टित जिन्हें घूमती-सी ( लोग देखते हैं, अत एव ये ) स्वर्गके बढ़ई अर्थात् विश्वकर्मा के द्वारा फिर शाणपर रखी गयी हैं क्या ? ( ऐसी शोभती हैं। अथवा-घूमते हुए त्रसरेणु-समूहोंसे वेष्टित ( अत एव ) विश्वकर्मासे शाणपर फिर रखी हुई-सी नहीं घूमती है क्या ? अर्थात् शाणपर रखी हुई -सी ही वे घूम रही हैं ) // 54 // पौराणिक कथा-विश्वकर्माकी पुत्री छायाने सूर्य के साथ विवाह होनेपर उनके तीक्ष्णतम तेज को नहीं सह सकने पर अपने पितासे उसे कम करने के लिए.प्रार्थना की। तदनन्तर विश्व.. कर्माने सूर्यको शाणपर रखकर घिसते घिसते उन्हें छोटाकर उनके तेजको छायाके द्वारा सहन करने योग्य बनाया। दिनमिव दिवाकीर्तिस्तोक्ष्णैः क्षुरैः सवितुः करैः स्तिमिरकबरीलूनी कृत्वा निशां निरदीधरत् / स्फुरति परितः केशस्तोमैस्ततः पतयालभि धुवमधवलं तत्तच्छायच्छलादवनीतलम् / / 55 / / दिनमिति / दिनं दिवसः / कत्तृ / रात्रौ क्षौरकर्मनिषेधात् दिवा कीर्तिर्यस्य स दिवाकीर्ति पितःइव, 'चुरिमुण्डिदिवाकीर्तिनापितान्तावसायिनः' इत्यमरः / तीचणैः निशितैः प्रखरैश्च, सवितुः सूर्यस्य, करैः किरणरूपैः, सुरैः वापनशस्त्रैः। 'तुरोऽस्य वापनं शस्त्रम्' इति यादवः / निशां रात्रिम् , व्यभिचारिणी पत्नीमिवेति भावः। तिमिरम् अन्धकारः, कबरी केशपाशाः इव, सा लूना छिन्ना यस्याः तां मुण्डित. केशाम्। 'जानपद-' इत्यादिना कचरात् ङीष , "जातिकालसुखादिभ्यः परा निष्ठा ... 1. तीक्ष्णात्तुरात्सवितुः करात्' इति 'जीवातु'सम्मतः पाठ इति म०म० शिवदत्तशर्माणः। 2. 'निशां शर्वरी तिमिरकबरी ध्वान्तलक्षणां वेणी लूनां कृत्वा छिन्नमूलां विधाय / 'तिमिरकबरीलनाम्' इति पाठस्तु क्तान्तत्वेन पूर्वनिपातप्राप्तेरुपेच्य, इति सुखावबोधा / 'जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम्' इति लनेति निष्ठायाः (न्तस्य)
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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