________________ 1286 नैषधमहाकाव्यम् / वाच्या' इति लूनीति निष्ठायाः परनिपातः, 'स्वादिभ्यश्च' इति निष्ठानत्वं, 'बहुव्रीहेश्चान्तोदात्तात्' इति ङीष् / कृत्वा विधाय, निरदीधरत् निष्कासयामास, इवेति शेषः, इत्युत्प्रेक्षा / धरतेो चङयपधाया द्वस्वः / ततः निर्धारणानन्तरम् , तेषां तेषां गृहा. दीनाम्, छाया अनातपः तत्तच्छायम् / 'विभाषा सेना-' इत्यादिना 'छाया बाहुल्ये' इत्यनेन वा नपुंसकत्वम् / तस्य छलात व्याजादित्यपह्नवः, परितः समन्तात् , पत. यालुभिः पतनशीलैः। 'स्पृहिगृहि-' इत्यादिना आलुच / केशस्तोमैः चिकुररा. शिभिः, अवनीतलं भूतलम् , अधवलम् असितम् , स्फुरति भाति, वं निश्चितमिध्र. त्युत्प्रेक्षायाम् // 55 // ____ नाई के समान दिनने तीक्ष्ण ( पखर, पक्षा०-तेज ) सूर्य-किरणरूपी छरेसे अन्धकाररूपी केश समूहको काटकर रात्रि (रूपिणी व्यभिचारिणी स्त्री ) का निश्चय किया अर्थात् छुरेसे मुण्डन करने के बाद कहीं पर कोई केश बाकी तो नहीं रह गया है ऐसा निर्धारण किया और उसे व्यभिचारिणी मानकर बहिष्कृत कर दिया। तदनन्तर उन-उन गृह आदिके छाया-समूहके छमसे सर्व तरफ गिरनेवाले केश-समूहोंके समान कृष्णवर्ण पृथ्वीतल स्फुरित ( दृष्टिगोचर ) हो रहा है। [जिस प्रकार नाई अपनी या दूसरे की व्यमिचारिणी स्त्रीके बालोंको तेज छुरेसे काटकर कहीं भी बाल बाकी तो नहीं रह गये हैं ऐसा 'अच्छी तरह निर्धारणकर उसे देशसे बहिष्कृत कर देता है और उसके फैलते हुए कालेकाले केश-समूहसे पृथ्वी काली दृष्टिगोचर होती है, उसी प्रकार दिनरूपी नाईने अन्धकाररूपी केश-समूहको सूर्यकिरणरूप तीक्ष्ण छूरेसे काट (नष्ट) कर रात्रिको बहिष्कृत कर दिया है और भवनोंकी काली काली परछाहीके कपटसे उस रात्रि-रूपिणी स्त्रीके अन्धकार रूपी केशोंसे . यह भूतल कृष्णवर्ण हो रहा है। रात्रिका अन्धकार पूर्णतः नष्ट हो गया, तीक्ष्ण सूर्य-किरणे * फैल रही हैं और भवनोंकी परछाही भूतलपर पड़ रही है ] // 55 // ब्रूमः शङ्ख तव नल ! यशः श्रेयसे सृष्टशब्दं यत्सोदयः स दिवि लिखितः स्पष्टमास्त द्विजेन्द्रः / अद्धा श्रद्धाकरमिह करच्छेदमप्यस्य पश्य म्लानिस्थानं तदपि नितरां हारिणो यः कलङ्कः // 56 / / / ब्रम इति / नल ! हे तदाख्यमहाराज ! तव ते, यशः कीर्तिम् , श्रेयसे मङ्गलाय, सृष्टशब्द सृष्टः निर्मितः, कल्पितः इत्यर्थः / शब्दो ध्वनिः यस्य तादृशं देवार्चनाशुभजातकर्मादौ विहितस्वनम् , शंख कम्बुम् , शङ्खतुल्यमित्यर्थः / ब्रमः कथयामः, वयमिति शेषः / शङ्खध्वनेः मङ्गलजनकत्वात् पुण्यश्लोकत्वेन नलयशसश्च लोकानां परनिपातः / 'बहुव्रीहेश्चान्तोदात्तात्' इति ङीष् , इति 'जीवातुः' इति म०म० शिव. दत्तशर्माणः / अत्रोपरितने सुखावबोधाव्याख्याने 'तिमिरकबरी लूनां..."इति पारः प्रतिभातीति वयम्।