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________________ सप्तदशः सर्गः। 1075 दान करनेवाले निर्धन होकर दुःखी रहते हैं, उदाहरणार्थ ( पृथ्वीरूप) सम्पूर्ण धनको वामनके लिए दान करनेवाला मूर्ख बलि वाग्बद्ध हुआ ( या वामनसे बांधा गया) और उसे पातालमें जाना पड़ा। इससे यह प्रमाणित होता है कि जिस स्मृतिपुराण शास्त्रमें दानकी श्रेष्ठता बतलायी गयी है, उसी स्मृति-पुराण शास्त्रमें दान करनेसे बलिके बांधे जाकर दुःख पानेके उदाहरण मिलते हैं, अत एव यज्ञादिमें दान करना निष्फल एवं दुःखमात्र फलदाता है / इस श्लोकमें लक्ष्मीके लिए 'हरिप्रया' शब्दका प्रयोग होनेसे पतिके मांगनेपर धन देनेवाले बलिके ऊपर लक्ष्मीको प्रसन्न होकर सुख पहुंचना चाहिये था, किन्तु उलटे विष्णुकी प्रिया लक्ष्मीको बलिने उसे ( लक्ष्मीको ) उस ( लक्ष्मी) के पति (वामनरूपी श्रीविष्णु) के पास पहुंचाकर भी बन्धन प्राप्त किया, अतः जो लक्ष्मीको किसीके लिए नहीं देता, उसीपर वह प्रसन्न रहती हैं यह सूचित होता है / अत एव दानादि करना व्यर्थ है ] // 8 // पौराणिक कथा-दैत्यराज बलि यज्ञ कर रहा था, उसके प्रभावसे भयात इन्द्रकी प्रार्थना करनेपर विष्णु भगवान् वामनका रूप धारणकर उस बलिकी यज्ञशालामें गये और उससे साढ़े तीन पैर भूमिको दानमें मांगा। अपने कुलगुरु शुक्राचार्यके बारबार निषेध करनेपर भी यज्ञमें पधारे हुए याचक ब्राह्मणको निराश लौटाना अनुचित मानकर बलिने उतनी भूमि दानमें दे दी तब वामनने विराट रूप धारणकर तीन पैरसे तीनों लोकों को माप लिया तथा शेष आधे पैरके स्थानमें बलिकी पीठ मापकर उन्हें पाताललोकमें भेज दिया। दोग्धा द्रोग्धा च सर्वोऽयं धनिनश्चेतसा जनः / विसृज्य लोभसङ्खोभमेकद्वा यद्यदासते / / 81 // दोग्धेति / अयं परिदृश्यमानः, सर्वः निखिलः जनः, लोकः, धनिनः धनिकान् , दोग्धा दोहनशीलः, परोपकारस्य कर्त्तव्यताद्युपदेशादिना धनिभ्यो नित्यं धनसंग्रह करोतीत्यर्थः, तथा चेतसा मनसा, द्रोग्धा च द्रोह करणशीलश्च, अनिष्टचिन्तनपर इत्यर्थः / कथमेनं वञ्चयित्वा एतस्य धनादिकं संगृह्णीयामित्येवं मनसि तस्यानिष्टं चिन्तयतमिति भावः / ताच्छील्ये तृन् , अत एत्र 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः। कदाचिदेतस्य व्यभिचारोऽपि दृश्यते इत्याह-लोभसक्षोभं धनाभिलाषजन्यं मानसचाञ्चल्यं, बिसृज्य विहाय, संयम्य इत्यर्थः / एको द्वौ वा येषां ते एकद्वाः, न तु तृतीयः इति भावः / 'सङ्खघयाव्यय-' इत्यादिना बहुव्रीही, 'बहुव्रीही सङ्खयेये' इति डचसमासान्तः। यदि सम्भावनायाम् ' उदासते निःस्पृहाः तिष्ठन्ति, तादृशलोभसक्षोभरहितो जनः अत्यल्प एव इति सम्भावयामि इति भावः / तथा च प्रतारकाणामुदरपूरको दानधर्मः सत्पात्राभावात् त्याज्य एवेति निष्कर्षः // 81 // ये सभी लोग धनिकोंसे (धन-दानादिका उपदेश देकर धनको) दुहनेवाले ( येन केनापि प्रकारेण धनको लेनेवाले ) ओर मनसे द्रोह करनेवाले अर्थात् किस प्रकार इसका 1. 'विषज्य' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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