________________ 1074 नैषधमहाकाव्यम् / तपोधनाः दुर्वासाप्रभृतयः, अन्यान् इतरान् , अक्रोधं सर्वानर्थहेतुत्वात् क्रोधः परि. हर्त्तव्य इत्यादिना क्रोधपरिहारं, शिक्षयन्ति उपदिशन्ति / 'विशासि-' इति द्विका मकत्वम् / ते मुनयः, निर्धनाः स्वयं निःस्वाः जनाः, धनायें धनार्थ, धातुवादोपदे. शिनः ईदृशप्रक्रियातो लौहः स्वर्णो भवेदित्यादिना परेषां धातुविद्योपदेष्टारः इव, उप. हास्या भवन्ति इति शेषः / धातुविद्योपदेष्टस्ताहशप्रक्रिया यदि फलवती स्यात् तदा स्वस्य कथं निर्धनत्वमिति स यथा उपहास्यः तद्वत् उपहास्याः स्युरिति भावः // 79 // सर्वदा क्रोध करनेवाले (दुर्वासा आदि ) जो तपस्वी लोग दूसरोंको क्रोध नहीं करनेकी शिक्षा देते हैं ( पाठा०-दूसरोंसे क्रोध नहीं करनेकी शिक्षा दिलवाते हैं ), वे निर्धन तपस्वी धन (पाने ) के लिए ही धातुवाद (क्रिया-विशेष के द्वारा लोहे आदि हीनजातीय धातुको चाँदी-सोना आदि उत्तम जातीय धातु बना देने ) का उपदेश देते हैं। [ जिस प्रकार स्वयं निर्धन कोई व्यक्ति 'इस विधिसे लोहा-ताँबा आदि हीनधातु चाँदी-सोना आदि उत्तम धातु बन जाता है। ऐसा उपदेश किसीको देते हैं किन्त स्वयं उस विधि द्वारा सोना बनाकर धनवान् नहीं हो जाते तो यही मानना पड़ेगा कि यह धन लेने के लिए मुझे ठग रहा है अन्यथा स्वयमेव सोना बनाकर धनी क्यों नहीं हो जाता ? उसी प्रकार दुर्वासा आदि मुनि जो सर्वदा क्रोध करते देखे गये हैं, वे जो दूसरोंको उपदेश देते हैं या दिखलाते हैं कि क्रोधका सर्वथा त्याग करना चाहिये, यह उनका उपदेश दूसरेको वञ्चित करना मात्र है वास्तविक नहीं, अतः उनका उपदेश भी मानने योग्य नहीं है ] // 79 // किं वित्तं दत्त ? तुष्टयमदातरि हरिप्रिया / दत्त्वा सर्व धनं मुग्धो बन्धनं लब्धवान बलिः / / 80 // किमिति / हे वदान्याः! वित्तं धनं, किं किमर्थं, दत्त ? वितरत ? न दातव्यमिस्यर्थः / सम्प्रश्ने लोट / न च अदाने लक्ष्मीनोभ आशङ्कनीय इत्याह-यतः इयं वित्तरूपा, हरिप्रिया लक्ष्मीः, अदातरि कृपणे एव, तुष्टा प्रसन्ना, अदानेनैव तुप्यती. त्यर्थः / तथा हि, मुग्धः मूढः, दानव्यसनीति भावः / बलिः वैरोचनिः, सर्वं धनं सर्वस्वं, दत्त्वा प्रदाय, वामनरूपाय विष्णवे इति भावः / बन्धनं संयमनं, लब्धवान् प्राप्तवान , त्रिविक्रमेण तेनैव बद्धः इत्यर्थः / दानविधायकं शास्त्रमपि तथा प्रमाणम् , एवञ्च कृपणे सम्पदपाया लदम्या अवस्थानदर्शनाद् दानं न कर्त्तव्यमेवेति भावः // 8 // (तुमलोग ) धनको क्यों देते ( यज्ञादिमें सत्पात्रों के लिए दक्षिणादिरूपमें दान करते ) हो ? अर्थात् ऐसा मत करो, ( क्योंकि ) यह विष्णुप्रिया ( लक्ष्मी) दान ( उपभोग आदि) नहीं करनेवाले ( कृपण ) पर ही प्रसन्न रहती ( उसके पास सदा निवास करती ) है। दानव्यसनी अर्थात् महादानी ( अथ च-दान महत्त्व प्रतिपादक स्मृति-पुराणादिमें श्रद्धालु) बलि सम्पूर्ण धन दान करके ( वामनके द्वारा) बन्धनको प्राप्त हुआ। [ यह देखा गया है कि जो धनका दान तथा उपभोग नहीं करते, उन्हीं कृपणों के यहां लक्ष्मी रहती हैं, और