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________________ त्रयोदशः सर्गः। 809 समान प्रतीत होता है। अथवा -अनल अर्थात् अग्नि है) यदि इसे छोड़ती हो तो तुम्हारा दूसरा कौन वर ( पति, या श्रेष्ठ ) होगा अर्थात् इससे अधिक श्रेष्ठ एवं तेजस्वी कोई तुम्हें नहीं प्राप्त होगा अत एव इसे ही वरण करना चाहिये। ( अथवा-यदि इसको छोड़ती हो तो तुम्हारा कौन अभीष्ट होगा अर्थात् कोई अभीष्ट नहीं होगा अपितु शत्रु होगा। [ अथवा-यहां पर भी सरस्वती देवीने दमयन्तीसे इस अग्निके त्याग करनेका सङ्केत किया है, यथा- यह तुम्हारा ( चित्तहारी) नल नहीं है (किन्तु उसकी आकृति धारण करनेसे) नलकी आभावाला है अर्थात् यह कान्ति इसकी स्वभाविक नहीं किन्तु कृत्रिम है। अथवानल ( तृण विशेष ) में आभावाला है अर्थात् जिसकी तेजस्विता तृण अर्थात् तुच्छमें ही है प्रबल शूरवीर दैत्यादिमें नहीं / अथ च-नैषधराज ( नल ) ही है गति ( शरण ) जिसका ऐसी आप इस प्रकाशमान अग्निका क्यों नहीं निर्णय करती ? अर्थात् निर्णय करती ही हैं क्योंकि वरण नहीं करती अथवा-यह तुम्हारा पति नल नहीं है किन्तु दैत्यादिसे उल्लवित तेजवाला नल नामक तृणतुल्य है, अत एव तुम्हारे द्वारा यह वरणीय नहीं है)। यमपक्षमें-पर्वतोंको ( सींगों या खुरोंसे ) फेंकनेवाले ( भैसे = महिष ) की गतिसे युक्त अर्थात् भैसेकी सवारी करनेवाला (धर्मनियन्त्रक होनेसे संसारका ) रक्षक क्रीडाशील ( पक्षा०-देवता यमराज ) का निश्चय तुम नहीं करती अर्थात् नहीं पहचानती ? अपितु पहचान ही लिया है, फिर क्यों नहीं वरण करती हो ? / अथवा-महिषके द्वारा गमन करनेवाला यम है गति ( शरण या रक्षक ) जिसका ऐसी दक्षिण दिशाका पति नहीं है ? अपितु दक्षिण दिशाका पति है ही, फिर क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् वरण करना चाहिये ( इसके यमराज होनेका निश्चय करना तथा फिर वरण करना चाहिये। ) अत्यन्त तेजस्वी यह निश्चित हो गहन नहीं है ( अपितु धर्मरूप होनेसे गहन = दुर्विज्ञेय है ) / यदि इसे तुम छोड़ती हो तो तुम्हें लाभ नहीं है ( अपितु हानि ही है, क्योंकि ) इससे भिन्न कौन तुम्हारा श्रेष्ठ ( या अभीष्ट या पति ) मिलेगा अर्थात् कोई नहीं मिलेगा। ( अथवा-यह नल नहीं है, (किन्तु ) तुम्हारे अत्यन्त बड़े प्राणोंका लाभ है जिससे ऐसा है (क्योंकि यमके अधीन ही सब प्राणियोंके प्राण हैं, अतएव इसके वरण करनेसे चिरकाल तक तुम जीओगी)। अथवा-(धर्मरूप होनेसे) अत्यधिक पूजावाला एवं वह्निकी आभावाला है ( अतः ) यदि इसे छोड़ोगी तो तुम्हारा बड़ा शत्रु कौन होगा अर्थात् इसके छोड़नेपर प्राणहरण करनेसे सबसे बड़ा शत्रु तुम्हारा यही होगा दूसरा कोई नहीं। अथवा-यदि तुम इसे छोड़ोगी तो ( इसके बादमें बैठा हुआ ) 'क' (जल) में ( या जलसे ) तैरनेवाला अर्थात् वरुण तुम्हारा दूसरा वर (पति) होगा [ अथवा यहां पर भी सरस्वती देवीने दमयन्तीसे इस यमके त्याग करनेका संकेत किया है, यथा-] इसे धराजगति अर्थात् दक्षिण दिशा का पति यम नहीं निश्चय करती ? अर्थात् यम निश्चय करती हो हो (और इसी कारण ) नहीं वरण करती हो क्या ? ( अथवा-धर्मराज जानकर देवका नहीं निश्चय करती ऐसा नहीं,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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