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________________ 810 नैषधमहाकाव्यम् / किन्तु निश्चय करती ही है इसीलिए पति नहीं स्वीकार करती हो क्या ? ) अर्थात् ऐसा करना उचित ही है यह दैत्योंसे अतिक्रान्त तेजवाला नल ( पितृदेव अर्थात् यम ) नहीं है ? अपि तु यम ही है, ( किन्तु नलाकृतिको कपटपूर्वक ग्रहण करनेसे ) तुम्हें यह नलकी कान्तिवाला दीखता है। यदि इसे छोड़ोगी तो 'क-तर' अर्थात् सुखसमुद्र (नल ) श्रेष्ठ वर प्राप्त होगा)॥ वरुणपक्षमें-यह भूलोकका पति नहीं है ( किन्तु पाताल लोकका पति है ) और इसे देव ( कान्तिमान् , या देवता वरुण ) नहीं निश्चय करती ? अर्थात् निश्चय करती ही हो फिर तुम वरण नहीं करती हो क्या ? अर्थात् इसे वरण करना चाहये। यह नल नहीं है, किन्तु तुम्हें अतिकान्तिमान् एवं नलकी कान्तिवाला प्रतीत होता है। यदि इसे छोड़ती हो तो तुम्हें कौन दूसरा वर श्रेष्ठ, या पति मिलेगा अर्थात् दूसरा कोई वर नहीं मिलेगा अत एव इसीका वरण करना चाहिये / अथवा-यह धराज पृथ्वी पर उत्पन्न होनेवाले स्थावर-जङ्गम प्राणी की गति ( जोवनोपाय जल ) का पति अर्थात् वरुण है यह नहीं निश्चय करती हो क्या ? अर्थात् निश्चय किया ही है, फिर क्यों नहीं वरण करती हो ? अर्थात् इसका वरण करना चाहिये / यह अतिमह ( अतिशय पूज्य ) अग्निकी कान्तिके अभावको करनेवाला है ( क्योंकि अग्नि पानीसे बुझ जाती है ) / यदि इसे छोड़ोगी तो तुम्हारा बडा शत्रु कौन होगा अर्थात् दूसरा कोई बड़ा शत्रु तुम्हारा नहीं होगा अपितु यही तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु होगा। अथवा-इसे धराज ( जगत्पोषक विष्णु ) की गति ( समुद्रशायी होनेसे प्रथम निवासस्थान जल ) का पति अर्थात् वरुण नहीं निश्चित करती ? अर्थात् करती ही हो। यदि तुम एन ( 'अ' = विष्णु हैं 'इन' = स्वामी जिसका ऐसे अर्थात् विष्णुभक्त इस वरुण ) को छोड़ती हो तो तुम्हारा बड़ा लाभ नहीं है अर्थात् हानि है अत एव तुम्हारा कतर ( 'क' = जलमें, या जलसे तैरनेवाला) अर्थात् वरुण ही श्रेष्ठ वर है / यहां पर भी सरस्वती देवीने दमयन्तीसे इसके त्याग करनेका संकेत किया है, यथा-] यह धराजगति (धराज = स्थावर (जगम संसार के प्राणियोंकी गति (रक्षा) है जिससे ऐसा जल ) का पति देव ( द्युतिमान् या देवता ) वरुणको नहीं निश्चित करती हो क्या ? अर्थात् निश्चय कर ही लिया है (क्योंकि ) वरण नहीं करती हो। यह नल नहीं है, किन्तु अतिपूज्य अग्निकी कान्तिका नाशक वरुण है। यदि इसे छोड़ती हो तो तुम्हारे महाप्राणोंका लाभ होगा अर्थात् तुम्हारा जीवन सार्थक हो जायेगा ( क्योंकि ) सुखसमुद्र श्रेष्ठ वर (नल) को प्राप्त करोगी / [नलके विना तुम्हारा जीना व्यर्थ एवं अशक्य है अत एव इसका त्याग करने पर ही श्रेष्ठ पति नलको प्राप्त करोगी ] // नलपक्षमें-इसे निषधदेश सम्बन्धी राजा ( या-निषधदेशके लोगोंके राजा ) के ज्ञानसे ( निषध देशका राजा जानकर ) स्वामी देव (क्रीडादियुक्त, या द्युतिमान् ) मनुष्य ( नल) क्यों नहीं निश्चय करती हो ? तथा क्यों नहीं वरण करती हो ? अर्थात् इसे उक्त
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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