________________ त्रयोदशः सर्गः। 811 गुणविशिष्ट मनुष्य ( इन्द्रादि देवचतुष्टय नहीं) नल जानकर तथा वरण करना चाहिये / क्योंकि तुम्हारा ( नलके विष्णुरूप होनेसे ) बहुत बड़ा 'अ' (विष्णु) का लाभ होगा। . यदि इसको छोड़ती हो तो कौन तुम्हार। वर ( पति या अभीष्ट ) श्रेष्ठ होगा ? अर्थात् इस नल के अतिरिक्त कोई भी दूसरा श्रेष्ठ पति नहीं मिलेगा अतः इसे ही वरण करो, अन्यथा विना पतिके ( कुमारी ) ही रह जावोगो / ( अथवा-यह भूलोकका स्वामी, मनुष्य राजा नल नहीं है ? अपितु नल हो है ऐसा क्यों नहीं निश्चय करती ?तथा क्यों नहीं वरण करतीं। अर्थात इसे नल निश्चय करना एवं वरण भी करना चाहिये / ( क्योंकि ) तुम्हारे बहुत बड़े जीवनका लाभ होगा अर्थात् इसके वरणसे तुम्हारा जीवन सुखमय बन जायेगा। यदि अय ( शुभकारक विधि ) को छोड़ोगी तो तुम्हारा कौन श्रेष्ठ वर होगा अर्थात् कोई नहीं, अतः इसाका वरण करना चाहिये / अथवा-नैषधराज अर्थात् नल हैं गति ( शरण ) जिसका ऐसी आप इस मनुष्य ( नल ) को पति क्यों नहीं निश्चय करतीं ? और क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् इसे मनुष्य नल जानकर तथा वरण भी करना चाहिये। यदि इसे छोड़ोगी तो तुम्हारा बड़ा अलाभ ( हानि ) होगा, क्योंकि इससे भिन्न कौन श्रेष्ठ है ? अर्थात् कोई नहीं / अथवा--यह देव ( इन्द्रादि चारों में से अन्यतम देवता ) नहीं है, किन्तु भूलोकका स्वामी (राजा) मनुष्य (नल ) है, ऐसा क्यों नहीं निश्चय करतीं ? और क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् तुम्हें दोनों काम करना चाहिये / यदि इसे छोड़ती हो तो तुम्हारा लाभ नहीं है अर्थात् हानि ही है...। अथवा-धराजों ( मनुष्यों ) की गति (सनिमेषत्वादि लक्षण ) से इसे राजा मनुष्य ( नल ) क्यों नहीं निश्चय करती ? ( और निश्चय कर ) पतिरूपमें क्यों नहीं वरण करतीं ? अर्थात् इसे नल जानकर पतिरूपमें वरण करना चाहिये / यदि इसे छोड़ोगी तो तुम्हारा दूसरा श्रेष्ठ कौन-सा लाभ होगा अर्थात् इससे अधिक श्रेष्ठ कोई दूसरा लाभ तुम्हें नहीं होगा, अतः इसे ही वरण करना चाहिये / अथवा-यह पृथ्वीपर ( अतिशय सुन्दर होनेसे ) अज अर्थात् कामदेव है, इस बुद्धिसे प्राणपति मनुष्य ( नल ) है, देवता नहीं यह क्यों नहीं निर्णय करतीं और निर्णय करके क्यों नहीं वरण करतीं ? ( निकटस्थ नलाकृतिवाले इन चारों में बनावटो सौन्दर्य है और इस ( मनुष्य नल ) में प्राकृतिक है, ऐसा देखनेसे ही इसके नल होने का निश्चय कर इसे वरण करना चाहिये ( क्योंकि निश्चितरूप से नलके आकृति धारण किये हुए ) अतिमा अर्थात् अत्यन्त सुन्दर ( बने हुए ) इन्द्रादिके त्यागमें लाभ है ( अत एब अकृत्रिम सौन्दर्यवाले इन्द्रादिका त्यागकर स्वाभाविक सौन्दर्यवाले नलको वरण करना चाहिये ) // 33 // इन्द्राग्निदक्षिणदिगीश्वरपाशिभिस्तां वाचं नले तरलिताऽथ समां प्रमाय / सा सिन्धुवेणिरिव वाडववीतिहोत्रं लावण्यभूः कमपि भीमसुताऽऽप तापम्।। ___ इन्द्रेति / अथ लावण्यभूः सौन्दर्यभूमिः, अन्यत्र-लवणरसाश्रयः, सा भीमसुता दमयन्ती, नले विषये, तां पूर्वोक्तां, वाचम् इन्द्राग्निदक्षिणदिगीश्वरपाशिभिः इन्द्राग्नि 51 नै० उ० .