SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 728
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकविंशः सर्गः। 1425 काल आया और उनसे एकान्तमें वार्तालाप करने की इच्छा प्रकट की। तदनुसार रामचन्द्रने लक्ष्मणको द्वारपर नियुक्तकर कहा कि 'हम दोनों के एकान्तमें वार्तालाप करते समय कोई भी भीतर आ जायेगा तो इस महापराधमें तुम्हें प्राणदण्ड दिया जायेगा। ऐसा अनुशासितकर रामचन्द्र मुनिरूपधारी कालसे बन्द कमरेमें वार्तालाप करने लगे उसी समय महाक्रोधी दुर्वासा मुनि आ गये और तत्काल ही रामचन्द्रसे मिलना चाहा, अन्यथा सवंश समस्त रघुवंशको भी शाप देकर नष्ट करने की धमकी उन्होंने दी। लक्ष्मणने सोचा कि यदि मुनिको हम भीतर जाने की अनुमति नहीं देते हैं तो ये समस्त रघुवंशियों को ही शापसे नष्टकर देंगे, तथा यदि भीतर जाने की अनुमति देता हूँ तो राजा रामचन्द्र केवल मुझे ही प्राणदण्ड देंगे, अतएव अपने प्राण देकर समस्त रघुवंशियों की मुनिशापसे रक्षा करना उचित है। ऐसा विचार कर लक्ष्मणने दुर्वासा मुनिको भीतर जानेकी अनुमति दे दी। फिर क्या था ? समय (शर्त ) के अनुसार रामचन्द्रकी आज्ञासे लक्ष्मणने सरयूनदीके जल में प्रवेशकर अपने प्राण त्याग दिये और उनके विरहको नहीं सह सकने के कारण श्रीरामचन्द्र ने भी तत्काल ही परम धामको प्रयाण किया। यह कथाप्रसङ्ग वाल्मीकि रामायणके उत्तरकाण्डमें मिलता है / क्रौञ्चदुःखमपि वीक्ष्य शुचा यः श्लोकमेकमसृजत् कविराद्यः / स त्वदुत्थकरुणः खलु काव्यं श्लोकसिन्धुमुचितं प्रबबन्ध // 73 // क्रौञ्चेति / हे राम ! विष्णो ! यः. आद्यः प्रथमः, कविः कवयिता वाल्मीकिः, क्रौञ्चस्य पक्षिविशेषस्य, कामविमुग्धयोः क्रौञ्चाख्यपक्षिमिथुनयोर्मध्ये एकस्मिन् व्याधेन हन्यमाने अपरस्य तदाख्यपक्षिणः इति यावत् / दुःखं शोकम् , वीच्यापि दृष्ट्राऽपि, शुचा शोकेन, एकम् एकसङ्ख्यकम् , श्लोकं-'मा निषाद ! प्रतिष्ठां त्वम. गमः शाश्वतीः समाः। यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमबधीः काममोहितम् // ' इति अमुं शोकोद्भवत्वात् श्लोकं पद्यम् , असृजत् अरचयत् / सः आद्यः कविः, स्वदुत्था स्वत् स्वत्तः सीताविरहादिदुःखपीडितात् भवतः, उत्था उद्भूता, भवद्विषये समुत्पन्ना इत्यर्थः / करुणा करुणरसो यस्य स तादृशः सन् , उचितं खलु योग्यमेव, अतिशुद्रस्य एकस्य पक्षिणः शोकात् एकस्मिन् श्लोके रचिते पुरुषोत्तमस्य भवतः शोकात् बहुतश्लोकरचनाया एव औचित्यादिति भावः। श्लोकसिन्धुं पद्यसागरम् , चतुर्विंशति. सहस्रश्लोकनिबद्धत्वात् सागरतुल्यमित्यर्थः / काव्यं रामायणं नाम महाकाव्यम् , प्रबबन्ध रचयामास // 73 // जिस आदिकवि (वाल्मीकि ) ने ( कामपरवश ) कौञ्च पक्षीके दुःखको देखकर शोकसे ( मा निषाद / प्रतिष्ठा व.........) एक श्लोकको रचा, ( सीता-परित्यागके कारण) तुम्हारे विषयमें उत्पन्न करुणावाले उस वाल्मीकिने श्लोक-समुद्र ( 24000 श्लोक होनेसे समुद्रतुल्य महान् 'वाल्मीकि रामायण' नामक ) काव्यको रच दिया। [ साधारणतम
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy