________________ 1426 नैषधमहाकाव्यम् / तिर्यग्जातीय क्रौञ्च पक्षीके दुःखसे करुणार्द्र हो एक श्लोक रचनेवाले कविका आप जैसे महापुरुषके दुःखसे अत्यन्त करुणाई होकर 24000 श्लोकवाले महाकाव्यका रचा जाना उचित ही है / अथवा-आपने एक समुद्रको बांधा तो आपमें संलग्नचित्त मुनिने भी श्लोक-सिन्धुको बांघा यह उचित ही है। समस्त सांसारिक सम्बन्धसे रहित मुनिने भी आपके दुःखसे करुणाई हो महाकाव्य बनाकर आपका वर्णन किया, अत एव आपका प्रभाव अचिन्त्य है ] // 73 // पौराणिक कथा-एक समय वाल्मीकि मुनि स्नान करने के लिए जब अपने आश्रमके पास बहती हुई तमसा नदीको जा रहे थे, तब कामपरवश क्रौञ्च-मिथुनमेंसे व्याधने नर (पुरुष पक्षी ) को मारा, उसे देख करुणाई महामुनिने सर्वप्रथम लौकिक अनुष्टुप् छन्दमें 'मा निषाद ! प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वतीः समाः / यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् // ' इस श्लोककी रचना की / इसके पूर्व वेदके अतिरिक्त लोकमें अनुष्टुप छन्दमें रचना किसीने नहीं की थी, अतएव इसकी रचना करनेसे ही वाल्मीकि मुनि आदि कवि' कहलाये / विश्रवःपितृकयाऽऽप्तुमनह सश्रवस्त्वमनयेत्युचितज्ञः / त्वं चकर्त्तिथ न शर्पणखाया लक्ष्मणेन वपुषा श्रवसी वा ? / / 74 / / विश्व इति / हे राम ? विष्णो। विश्रवाः तदाख्यमुनिः श्रवणरहितश्च जनः, पिता जनको यस्याः सा विश्रवःपितृका तया। 'नद्यतश्च' इति कप समासान्तः / अनया शूर्पणखया, सश्रवस्त्वं श्रोत्रसहितत्वम् , आप्तुम् लब्धुम् , अनहम् अयोग्यम् , इत्युचितज्ञः इति एवम् , उचितं योग्यम् , जानाति बुध्यते यः स तादृशः, त्वं भवान् लक्ष्मणेन वपुषा लक्ष्मणरूपेण निजदेहेन, एक एव नारायणः आत्मानं चतुर्द्धा विभज्य रामादिभ्रातृचतुष्टयरूपेण अवतीर्णत्वात् इति भावः। शूर्पणखायाः तदाख्यायाः राव. णभगिन्याः निशाचर्याः, श्रवसी श्रोत्रे, किं वा न चकत्तिथ ? किं न कृत्तवान् असि ? अपि तु चकर्तिथ एवेत्यर्थः // 74 // 'विश्रवा ( विश्रवा नामक मुनि, पक्षा०-कानरहित व्यक्ति ) की कन्या इस (शूर्पणखा) को कान सहित होना अनुचित है। इस उचित बातको जाननेवाले तथा ( एक विष्णुके ही अंशसे चारो भाइयोंको अवतार ग्रहण करने के कारण ) लक्ष्मणशरीरधारी तुमने शुर्पणखाके दोनों कानोंको नहीं काटा था क्या ? अर्थात् अवश्य काटा था // 74 / / ते हरन्तु निऋतिव्रततिं मे यैः स कल्पविटपी तव दोभिः। छद्मयादवतनोरुदपाटि स्पर्द्धमान इव दानमदेन / / 75 / / ते इति / हे विष्णो ! कृष्ण ! छद्मयादवतनो छद्मना कपटेन, यादवी यदुवंशोद्भः वकृष्णरूपिणी, तनुः मूर्तिर्यस्य तादृशस्य, निराकारत्वस्यैव स्वाभाविकत्वात् लीला. स्वीकृतयादवशरीरस्येत्यर्थः / तव ते, यैः दोभिः चतुर्भिर्बाहुभिः, दानमदेन लोकेभ्यः 1. 'दुरितव्रततिम्' इति पाठान्तरम् /