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________________ एकविंशः सर्गः। 1449 वस्तु विश्वमुदरे तव दृष्ट्वा बाह्यवत् किल मृकण्डतनूजः / स्वं विमिश्रमुभयं न विविञ्चन् निर्ययौ स कतरस्त्वमवैषि / / 9 / / वस्त्विति / हे विष्णो ! मृकण्डतनूजः मार्कण्डेयमुनिः, तव भवतः, उदरे जठरे, बाह्यवत् बहिर्जगदवस्थितं वस्तुजातमिव, विश्वं निखिलम् , वस्तु पदार्थम् , दृष्ट्वा वीक्ष्य, उभयं बाह्यमुदरस्थन्च द्वयम्, विमिश्रं विशेषेण संयुक्तम्, एकविधप्रकारवेन सम्मिलितमित्यर्थः / एकस्मिन्नेव उदरे बाह्योदराभ्यन्तरस्थितयोः द्वयोरपि स्थित. स्वेन प्रतीयमानस्वात् अविविक्तमिति यावत् / स्वम् आत्मानम् , न विविञ्चन् विवे. क्तम् अशक्नुवन् , कोऽहं बहिरासम् ? को वा उदराभ्यन्तरे वर्त? इत्येबंरूपेण भिन्न तया ज्ञातुमसमर्थः सन् इत्यर्थः / निर्ययौ उदरात निर्गतवान् , किल इति प्रसिद्धौ वार्तायां वा, सः मृकण्डतनूजा, कतरः बहिःस्थितो वा कः ? उदरस्थितो वा का ? इति त्वं भवानेव, अवैषि जानासि, नान्यः कोऽपि इत्यर्थः / सर्वज्ञत्वादिति भावः॥९४॥ (हे विष्णु भगवान् ! ) मार्कण्डेय मुनि तुम्हारे उदरमें, बाहरके समान ( जिस रूपमें बाहर स्थित है उसी प्रकार ) समस्त पदार्थको देखकर विशेषरूपसे मिलित ( एक ही उदर में स्थित होनेसे अविविक्त ) दोनों अपनेको नहीं निश्चित करते हुए ( बाहर स्थित जो मैं उदरमें प्रविष्ट हुआ, वह कौन है ? तथा जो पहलेसे उदरमें है, वह कौन है ? यह निर्णय नहीं कर सकते हुए ) बाहर निकल गये / ( बाहर तथा उदरमें स्थित उन दोनों में वह (मार्कण्डेय) कौन है ? यह तुम जानते हो (दूसरा कोई नहीं जानता)। [ अथवा-जिस तुम्हारे उदरमें 'बाहरी समस्त वस्तुओंको देखकर मार्कण्डेय मुनि उदरमें स्थित अपनेसे विशेष रूपसे मिश्रित दोनों अपनेको नहीं जानते हुए निकल गये, वह अनेक अवतारोंमें-से कौन-सा तुम्हारा विशिष्ट अवतार है ?, यह तुम्हीं जानते हो, स्वप्रकाश तुमको दूसरा कोई भी नहीं जानता] // ब्रह्मणोऽस्तु तव शक्तिलतायां मूर्दिन विश्वमथ पत्युरहीनाम् / बालतां कलयतो जठरे वा सर्वथाऽसि जगतामवलम्बः॥ 95 / / ब्रह्मण इति / हे विष्णो ! विश्वं जगत् , ब्रह्मणः परब्रह्मरूपिणः, तव भवतः, शक्तिः माया एव, लता वल्ली तस्याम्, अस्तु तिष्ठतु, फलस्वरूपेणेति भावः / अथ किं वा, अहीनां नागानाम्, पत्युः ईशस्य नागराजशेषस्य, अनन्तनागरूपिण इत्यर्थः। तव भवतः, मूर्दिन शिरसि, अस्तु / वा अथवा, बालतां शिशुभावम् , कलयतः दधानस्य, वटपत्रशायिनो बालकभूतस्येत्यर्थः / तव इति शेषः / जठरे सदरे, अस्तु, सर्वप्रकारेणापि, जगतां त्रैलोक्यस्य, अवलम्बः आश्रयः, असि भवसि, स्वमिति शेषः। अत एव तुभ्यं नमोऽस्तु इति भावः // 95 // -- ( हे विष्णो ! सृष्टिसे पहले स्थावर-जङ्गमात्मक यह) संसार ब्रह्मरूप तुम्हारी शक्तिरूपिणी लतामें रहा, तदनन्तर (सृष्टिके बाद तुम्हारे ही अंश) सर्पराज (शेषनाग) के मस्तकपर रहा, अषवा (प्रलयकालमें') बालभाव धारण किये हुए आपके उदरमें रहा।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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