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________________ एकविंशः सर्गः। 1419 कार्तवीर्यभिदुरेण दशास्ये रेणुकेय ! भवता सुखनाश्ये / कालभेदविरहादसमाधि नौमि रामपुनरुक्तिमहं ते / / 65 / / कार्तवीर्येति / हे रेणुकेय ! रेणुकापत्य ! परशुराम ! 'स्त्रीभ्यो ढक्' / कार्तवीर्यस्य कार्तवीर्यार्जुनस्य, भिदुरेण नाशकेन / भिदेः कर्तरि कुरच / भवता स्वया, दशास्ये रावणेऽपि, सुखम् अनायासं यथा भवति तथा, नाश्ये हन्तव्ये सति, रावणं जितवतः कार्तवीर्यस्य यः जेता तस्य रावणनाशे आयासाभावादिति भावः / कालभेदस्य युगरूपस्य समयान्तरस्य, विरहात् अभावात् , एकस्मिन्नेव त्रेतायुगे उभयोरेवावतीर्णत्वात् इति भावः ! असमाधिं सिद्धान्तहीनाम् , ते तव, रामेण दाशरथिना, पुनरुक्ति रामनाम्नः पुनः कथनम् , अहं नलः, नौमि स्तौमि / द्विरुक्तेः कालभेदात कार्यभेदाद्वा परिहारो भवितुमर्हति, अन तु एकस्यामेव त्रेतायो दशास्यवधादिरूपस्य कार्यस्य एकेनैव कतुं शक्यत्वेऽपि पुनः दाशरथिरामरूपेणावतीर्णस्वात तेन सह तव अशक्यपरिहारा पुनरुक्तिर्जाता, तादृशीम् अतयंरूपां महीयसी रामरूपां पुनरुक्तिमहं नौमीत्यर्थः / रेणुकापत्यत्वात् मात्रंशे एकस्यामेव क्षत्रियजाती समुद्भुतेन एकस्मिन्नेव त्रेतायुगे अवतीणन कार्तवीर्यविजयिपरशुरामावतारेणैव कार्तवीर्यजितस्य रावणस्य वधे सुकरेऽपि पुनः तदर्थ रामावतारग्रहणस्य आनथक्यात् पुनरुक्तिमिव प्रतिभाति, अस्याश्च निरसनाय सदुत्तरं नास्तीति भावः // 65 // हे रेणुकापुत्र (परशुराम )! सहस्रार्जुनको काटने ( मारने ) वाले आपसे सुखपूर्वक विनाशनीय रावणके होनेपर कालभेदके बिना अर्थात् एक ही त्रेतायुगमें समाधान रहित रामावतार ग्रहणरूप तुम्हारी पुमरुक्तिको मैं नमस्कार करता हूं। [ त्रेतायुगमें मानव क्षत्रिय परशुरामावतार लेकर रावणके विजेता सहस्रार्जुनको आपने मार दिया तो रावणको मारना भी उसी मानवरूप परशुरामावतारसे सुखसाध्य था, फिर भी उसी त्रेतायुगमें दशरथ-पुत्ररूपमें मानव क्षत्रिय रामावतार धारण करने का कोई समाधान नहीं होनेसे यह रामावतार धारण पुनरुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि कालभेद या कार्यभेदसे परिहार हो सकता है, किन्तु इन दोनों त्रेतायुगके मानव एवं क्षत्रिय (परशुराम तथा राम) अवतारों में भेद नहीं होनेसे पुनरुक्तिका समाधान नहीं होता / 'स्वतन्त्र' आपसे कोई भी प्रश्न करना किसी को उचित नहीं, क्योंकि उसकी सर्वतोमुखी प्रभुता होती है / यद्यपि परशुराम मनुष्य थे, परन्तु उनमें देवभाव भी था और देवसे रावणको नहीं मारनेका वरदान ब्रह्माने दिया था, अत एव परशुराम रावणको नहीं मार सकते थे। तथा रावणको मारने के लिये (दाशरथि) रामको देवशान नहीं होनेसे मनुष्यरूप रामके द्वारा ही रावणका वध होना सुकर था, इस कारण एक कालमें भी दो अवतार धारण करना उचित होनेसे यद्यपि उक्त पुनरुक्तिका सूक्ष्मतम समाधान है ही; तथापि स्थूलरूपसे समाधान नहीं होनेसे उक्त पुनरुक्तिको कहा गया समझना चाहिये / परशुराम को 'रेणुकापुत्र' कहनेसे उनमें क्षत्रियत्वकी प्रधानता 89 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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