________________ 1420 नैषधमहाकाव्यम् / सूचित की गयी है / इस श्लोकसे नलने परशुरामकी ही स्तुति की है, ऐसा 'प्रकाश'कारका मत है, किन्तु 'सुखावबोधा' व्याख्याकार इस श्लोकसे दशरथापत्य रामकी स्तुति नलने की है, ऐसा मानते हैं ] // 65 // हस्तलेखमसृजत् खलु जन्मस्थानरेणुकमसौ भवदर्थम् / राम! राममधरीकृततत्तल्लेखकः प्रथममेव विधाता / / 66 / / __ हस्तेति / राम ! हे दाशरथे ! अधरोकृताः तिरस्कृताः, सुग्रीवादिरूपेण भूतल. मवतारिताश्च, ते ते प्रसिद्धाः, लेखकाः लिपिकराः, लेखाः इन्द्रादयः देवाश्च येन सः तादृशः अधरीकृततत्तल्लेखकः। देवपक्षे 'शेषाद्विभाषा' इति कप समासान्तः। असौ एषः, विधाता स्रष्टा, भवदर्थ भवादृशोत्तम शिल्पनिर्माणार्थम् , प्रथममेव आदावेव, जन्मस्थानम् उत्पत्तिक्षेत्रम् , रेणुका. तन्नाम्नी जमदग्निभार्या यस्य तं तादृशम् , रामं परशुरामम् , हस्तलेखं कराभ्यासम् , असृजत् सृष्टवान् , खलु निश्चितम् / अन्योऽपि शिल्पाजीवी शिल्पनिर्माणे नैपुण्यलाभार्थमादौ यत् किश्चित् द्रव्यं निर्माय निर्माय अभ्यासं कृत्वा अनन्तरं यथा उत्कृष्टं निर्माति, तद्वदिति भावः / एतेन परशुरामाद् दाशरथेः रामचन्द्रस्य औत्कष्य प्रदर्शितमिति मन्तव्यम् // 66 // (अब नव (21466-74 तथा क्षेपक सहित दश) इलोकोंसे रामावतारकी स्तुति करते हैं-) हे रामचन्द्र ! उन-उन (प्रसिद्धतम ) लेखकों (चित्रकारों या-इन्द्रादि देवों, यादक्ष आदि आठ प्रजापतियों ) को तिरस्कृत किये हुए (पक्षा०-नीचे अर्थात् मृत्युलोकमें सुग्रीवादिरूपमें देवोंको अवतार ग्रहण करानेवाले) इस ब्रह्माने आपके लिए रेणुका है जन्मस्थान जिसका ऐसे 'राम' अर्थात् परशुरामको पहले ही हाथके अभ्यासार्थ रचा है / [जिस प्रकार कोई चित्रकार हाथके अभ्यासके लिए पहले साधारण चित्रको बनाकर बादमें उत्तम चित्र बनाता है, उसी प्रकार मानो ब्रह्माने तुम्हें भूलोकमें अवतीर्ण करने के लिए रेणुकातनय 'परशुराम' को पहले बनाकर हस्तकौशलाभ्यास होने के बाद दशरथापत्य 'राम' को बनाया है। इससे परशुरामकी अपेक्षा रामका अधिक महत्त्व सूचित होता है ] // 66 // उद्भवाजतनुजादजै ! कामं विश्वभूषण ! न दूषणमत्र / दूषणप्रशमनाय समर्थ येन देव ! तव वैभवमेव / / 67 / / उद्भवेति / न जायते इति अजः, तत्सम्बोधने हे अज ! हे जन्मरहित विष्णो! सनातनत्वादिति भावः / अजस्य रघुनन्दनस्य तदाख्यनृपविशेषस्य, तनुजात् आत्मजात् दशरथात् , कामं यथेच्छम् , उद्भव जायस्व, स्वमिति शेषः / भवतेलोटि सिपि रूपम् / विश्वभूषण ! जगदलङ्कार ! पुरुषोत्तमत्वादिति भावः / अत्र अस्मिन् विषये, अजस्य तव अजतनुजोगवने इत्यर्थः / दूषणं दोषः, असङ्गतिरूपदोष 1. 'दनुकामम्' इति पाठान्तरम् /