________________ 1510 नैषधमहाकाव्यम् / पर्वतसे पत्थरपर गिरे हुए पके फलको टूटने और उसके बीजों को सर्वत्र फैल जाने के समान पके फल के तुल्य अरुणवर्ण सूर्यबिम्बका अस्ताचलके शिखरसे गिरनेसे चूर-चूर होकर उसके कृष्णवर्ण बीजोंको फैलाना उचित ही है। पकनेपर लाल एवं नीबूके समान गोलाकार 'किम्पाक' ( महाकाल ) के फलको लोग द्वारपर ग्रहबाधाके निवारणार्थ बांधते हैं, ऐसा वृद्धोंका कथन है / दिनकालके परिणत होने से अस्त होनेके समय रक्तवर्ण सूर्यको पके हुए 'किम्पाक' फलके सदृश तथा अन्धकारको पके एवं पत्थरपर गिरनेसे फूटे हुए उस 'किम्पाक' फलके कृष्णवर्ण बीजों के सदृश कहा गया है। दूसरी दिशाओंकी अपेक्षा पश्चिम दिशामें सायङ्काल के समय सूर्य सन्ध्यासम्बन्धी प्रकाशके निकटस्थ रहनेसे थोड़े अन्धकारको सूचित करनेके लिए अन्धकारके बीजरूपमें निरूपित किया है ] // 28 // उदीचीव्यापि तमो वर्णयति पत्युगिरीणामयशः सुमेरुप्रदक्षिणाद्भास्वदनाहतस्य | दिशस्तमश्चैत्ररथान्यनामपत्रच्छटाया मृगनाभिशोभि || 29 / / पत्युरिति / चैत्ररथं कुबेरवनं तदेवान्यन्नाम यस्यास्तादृशी पत्रच्छटा पत्रवल्ली यस्याश्चैत्ररथाख्यवनरूपपत्रवल्लीकाया उत्तरस्या दिशो मृगनाभिः पत्रवल्लीरचनासाधनभूता कस्तूरी तद्वच्छोमते एवंशीलं कृष्णतमं तमो . गिरीणां पत्युर्हिमाचलस्यायश एव / यतः-सुमेरोः प्रदक्षिणीकरणाद्भास्वता सूयणानाहतस्यावज्ञातस्य / हिमाद्रि यद्यपि गिरोणां पतिः, तथापि सूर्यानाहतत्वाद्धीन एव, मेरुरेव महान् / 'अस्योद्यानं चैत्ररथम्' इत्यमरः // 29 // (अब क्रमागत उत्तरदिशाके अन्धकारका वर्णन करते हैं-)'चैत्ररथ' नामक वनरूप पत्ररचनावाली दिशा (उत्तर दिशा) के (पत्राचनासाधनभूत ) कस्तूरी के समान शोभनेवाला अन्धकार, सुमेरुकी प्रदक्षिणा करनेसे सूर्य के द्वारा अनादृत गिरिराज ( हिमालय ) का अयश ही है (या-अयशके समान है)। [ यद्यपि पर्वतोंका राजा होनेसे हिमालय पर्वतकी प्रदक्षिणा ही सूर्यको करनी चाहिये थी, किन्तु वे सर्व हिमालयकी प्रदक्षिणा नहीं करके सुमेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं, यह हिमालयका महान् अयश है, जो 'चैत्ररथ' नामक कुबेरोद्यानरूप पत्ररचना ( पचियोंकी रचना; पक्षा०-चन्दन, कस्तूरी आदिसे स्तनादिपर बनायी गयी पत्राकार चिह्न विशेष ) वाली उत्तरदिशा रूपिणी नायिकाके पत्ररचनाके साधनभूत कृष्ण. वर्ण कस्तूरीके समान शोभता है। उत्तर दिशामें 'चैत्ररथ' नामक कुबेरोद्यान, कस्तूरी एवं पर्वतराज हिमालयका होना तथा सूर्यका हिमालयको त्यागकर सुमेरुकी ही प्रदक्षिण करना सर्वविदित है ] // 29 // ऊर्ध्वदिग्व्यापि तमो वर्णयति ऊवं धृतं व्योम सहस्ररश्मेदिवा सहस्रेण कररिवासीत् / पतत्तदेवांशुमता विनेदं नेदिष्ठतामेति कुतस्तमिस्रम् // 30 / /