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________________ एकविंशः सर्गः। 1443 पश्यत अवलोकयत, अचेतनोऽपि जडोऽपि, पाञ्चजन्यः अपाञ्चजन्यश्च इति शेषः / मयि अस्मद्विषये, मुक्तः पूर्वोक्तप्रकारेण त्यक्तः, विरोधः विद्वेषः येन सः तारशः, जात इति शेषः। न किम् ? विरोधं परित्यज्य मयि अवस्थितो न किम् ? इत्यर्थः। किल इति प्रश्ने, अपि तु तयोरुभयोरेव मयि अविरोधेनावस्थानात् त्यक्तविरोध एव जात इति भावः। अत एव सचेतनैः युष्माभिरपि विरोधं परित्यज्य मयि स्थातव्यम्, अन्यथा चेतनशङ्खासुरवत् भवतामपि मरणं भविष्यत्येव इति तात्पर्यम् // (हे विष्णो ! बायें) हाथसे 'पाञ्चजन्य' नामक शङ्खको तथा ( दहने ) हाथसे जलोत्पन्न अर्थात् कमलको धारणकर असुरोंसे मानो इस प्रकार कहते हो कि-तुमलोग चेतन हो तो क्यों नहीं देखते हो कि-अचेतन ( 'पाञ्चजन्य' तथा 'अपाच जन्य' अर्थात् क्रमशः शङ्ख तथा कमल ) भी मेरे विषयमें विरोध रहित हैं / [ अथवा-अचेतन भी पाञ्चजन्य शङ्खको मैं नहीं छोड़ता तो सचेतन शङ्खासुर आदि तुम लोगोंको मैं बिना मारे कैसे छोडूंगा ? अर्थात् कदापि नहीं छोडूंगा / अथबा-अचेतन पाञ्जजन्य शङ्ख ही मेरे विषयमें विरोधरहित है, तुमलोग सचेतन हो, अत एव मेरे विषयमें विरोध करो तो तुमलोगोंकी भी वही गति होगी, जो चेतनावस्थामें इस पाञ्चजन्य शङ्ख ( शङ्खासुर ) की हुई थी अर्थात् तुम लोगोंको भी मैं मारूंगा] // 84 // तावकोरसि लसद्वनमाले श्रीफलद्विफलशाखिकयेव / स्थीयते कमलया त्वदजस्रस्पर्शकण्टकितयोत्कुचया च / / 85 // तावकेति / हे नारायण ! तव भवतः, अजस्रं निरन्तरम्, स्पशन संस्पर्शन, कण्टकितया साविकभावोदयेन सातरोमाञ्चया कण्टकयुक्तया च, तथा उत् उदगतौ उन्नती, कुचौ स्तनौ यस्याः तादृश्या च, कमलया लपण्या, लसन्ती शोभमाना, वनमाला आरण्यकुसुमस्रक काननश्रेणी च यस्मिन् तादृशे, तावके स्वत्सम्बन्धिनि, उरसि वक्षसि, श्रीफलस्य बिल्ववृक्षस्य / 'बिल्वे शाण्डिल्यशैलूषौ मालूरश्रीफलावपि' इत्यमरः / द्वे फले फलद्वयमानं यस्यां सा द्विफला, या शाखिका खुद्रशाखा तया इव / अल्पार्थे कन् / स्थीयते वृत्यते / भावे लकारः। 85 // शोमित होती हुई वनमालावाले तुम्हारे वक्षःस्थलपर तुम्हारे निरन्तरस्पर्श ( जन्य सुख ) से रोमाञ्चयुक्त, उन्नत स्तनोंवाली लक्ष्मी बेलवृक्षके फलद्वयसे युक्त टहनी (पतली डाली ) के समान रहती है / [जहांपर वनमाला (वनोंकी श्रेणि ) रहती है, वहांपर कण्टक एवं फलयुक्त बिल्व वृक्षकी शाखा भी रहती है, उसी प्रकार प्रकृतमें भी वनमाला होनेसे लक्ष्मीको भी फलस्थानीय पीवर स्तनदय एवं कण्टकस्थानीय रोमाञ्चसे युक्त होकर रहनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 85 // त्यज्यते न जलजेन करस्ते शिक्षितुं सुभगभूयमिवोच्चैः / आननञ्च नयनायितम्बिम्बः सेवते कुमुदहासकरांशुः / / 86 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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