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________________ 630 नैषधमहाकाव्यम् / मालूम पड़ा। नलको देखने में तन्मय होनेसे पानके स्थानमें कमलको खानेसे उस स्त्री का 'विभ्रम' नामक भाव सूचित होता है ] // 77 // कयाऽपि वीक्षाविमनस्कलोचने समाज एवोपपतेः समीयुषः / ___ घनं सविघ्नं परिरम्भसाहसैस्तदा तदालोकनमन्वभूयत / / 78 / / कयाऽपीति / कयाऽपि कान्तया, वीक्षया अनिमेषदर्शनेन, विमनस्के नलदर्शन. लालसेन विषयान्तरविमुखे, लोचने यस्य तादृशे, समाजे जनसमूहे, एव, समीयुषः समेतस्य, उपपतेः जारस्य, घनं गाढं यथा तथा, परिम्भसाहसैः आलिङ्गनरूपसाहः सकृत्यैः, तदा तत्काले, तदालोकनं नलविलोकनं, सविघ्नं यथा तथा अन्वभूयत अनु. भूतं, जारकत्त कालिङ्गनेन व्यवधानात् निरन्तरदर्शनं न जातमित्यर्थः / कामान्धाः किं न कुर्वन्तीति भावः // 7 // किसी (पुंश्चलो ) स्त्रीने ( नलको) देखने में अतिशय आसक्त नेत्रवाले जन-समूहमें ही आये हुए जारके गाढालिङ्गनरूप साहस ( अनवसर में विचारशून्य होकर किये गये मालिङ्गन ) से उस समय उस ( नल ) के दर्शनको सविघ्न अनुभव किया ( अथवा-.." जारके आलिङ्गनरूप साहससे उसके दर्शनको अत्यन्त सविघ्न अनुभव किया। अथवा-... साहससे तब-तब अर्थात कभी-कभी दर्शन किया अर्थात् निरन्तर दर्शन नहीं कर सकी)। [जारके द्वारा किये गये आलिङ्गनसे बीचमें व्यवधान होनेसे नलको निरन्तर नहीं देख सकनेके कारण उसे विघ्नयुक्त माना ] // 78 // दिदृक्षुरन्या विनिमेषवीक्षणा नृणामयोग्यां दधती तनुश्रियम् / पदाग्रमात्रेण यदस्पृशन्महीं न तावता केवलमप्सरोऽभवत् / / 76 / / दिदृतुरिति / दिदृतुः नलं द्रष्टुमिच्छुः, अत एव विनिमेषवीक्षणा अनिमेषदृष्टिः, नृणाम् अयोग्याम् अमानुषीं, तनुश्रियम् अङ्गसौन्दर्य, दधती अन्या काचित् सुन्दरो, पदाप्रमात्रेण पदाङ्गुल्यग्रेण भरं कृत्वेत्यर्थः / महीं यत् अस्पृशत् , तावता केवलं मही. तलस्पर्शेनैव, न अप्सरोऽभवत् , अन्यथा अप्सरसोऽस्याश्च को भेदः ? इति भावः / अत्र 'कृस्वस्तियोगे-' इत्यादिना अभूततद्भावार्थे अप्सरःशब्दात् वि-प्रत्ययः। प्रकृतिविकृतिस्थले क्रियया प्रकृतिसङ्ख्याग्रहणनियमात् अन्या इत्यस्यैकवचनान्त. स्वेन अभवदित्यत्राप्येकवचनम् / अत्र महीमस्पृशदित्युपमेयस्योपमानादीषदल्पत्वकथनेन भेदप्रधानसादृश्योक्तिव्यतिरेकालङ्कारभेदः, 'भेदप्रधानं साधर्म्यमुपमानोपमे. ययोः। आधिक्याल्पत्वकरणात् व्यतिरेकः स उच्यते // इति लक्षणात् // 79 // (नलको ) देखनेकी इच्छुक (अत एव ) निनिमेष ( एकटक ) नेत्रवाली, (तथा निनिमेष दृष्टि होनेसे ) मनुष्यों के अयोग्य अर्थात् दिव्य शरीरशोभाको धारण करती हुई दूसरी स्त्री ( भीड़में नलको अच्छी तरह देखने के लिए ) जो केवल चरणाग्र (पैरके चौवे या अँगूठे ) से पृथ्वीका स्पर्श किया, केवल उतनेसे ही वह अप्सरा नहीं हुई। [किसीको
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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