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________________ पञ्चदशः सर्गः। 631 भीड़में देखने के लिए एड़ी उठाकर पैरके चौवेके बलपर खड़ा होकर देखना दर्शकमात्रका स्वभाव होता है, अत एव वह भीड़में नलको अच्छी तरह देखनेके लिए एड़ी उठाकर पैरके चौवे ( या अंघठे) के सहारे भूमिपर खड़ी हुई इतनेसे ही वह अप्सरा नहीं हुई, अन्यथा निमेषरहित नेत्र तथा दिव्य शरीरशोभा होनेसे वह साक्षात् अप्सरा ही थी] // 79 // विभूषणसंसनशंसनार्पितैः करप्रहारैरपि धूननैरपि / अमान्तमन्तः प्रसभं पुरा परा सखीषु सम्मापयतीव सम्मदम् / / 80 // विभूषणेति। परा अन्याकाचित् ,अन्तःसखीषु अन्तःशरीरे, अमान्तमस्याधिक्यात् ‘उल्लसन्तं, सम्मदं हर्ष, विभूषणानां टेसनस्य स्थानभ्रंशस्य, शंसनाय यथास्थानं निवेशय इति कथमाय, अर्पितेः प्रयुक्तः, प्रसभं बलात् , करप्रहारैः पाणिघातैरपि, तथा धूननैरपि तदीयगात्रकम्पनेरपि, पुरा सम्मापयतीव सम्मापयामासेवेत्युत्प्रेक्षा। "पुरि लङ् चास्मे' इति भूते लट् / यथा तण्डुलादिसम्मापनाय प्रस्थादिकं मुष्टिभिर्वध्नन्ति धुवन्ति च तद्वदिति भावः // 8 // दूसरी ( किसी स्त्री ) ने सखियोंमें भीतर नहीं समाते (अँटते ) हुए ( नलदर्शनजन्य ) अत्यधिक हर्षको भूषणके गिरने पर किये गये करप्रहारोंमें कम्पनोंसे तथा बलात्कारसे समवाया। [ सखियां नलको देखने में इतना एकाग्रचित्त हो गयी थीं कि भूषणके स्थानच्युत होनेपर भी उन्हें अपने भूषणका गिरना मालूम नहीं पड़ा, तो दूसरी सखीने 'तुम्हारा भूषण गिर गया' ऐसा कहकर उसे सचेत किया, फिर भी उसने नहीं सुना तो हाथसे उसके शरीरपर मारकर (हल्का थपका देकर ) सचेत किया और इतना करनेपर भी उसने भूषणको नहीं सम्हाला तो उसके शरीरको कम्पित (हिला) कर उसे सचेत किया और उसने अपने भूषणको यथास्थान धारणकर सम्हाला; वह कार्य ऐसा मालूम पड़ता था कि मानों नलके देखनेसे उत्पन्न अत्यधिक हर्ष उसके शरीरमें नहीं समा रहा है और बाहर गिर रहा है, उसे दूसरी सखीने पहले कहकर बादमें हाथसे ठोंककर और इतना करनेपर भी नहीं समाया तो उसे हिलाकर बलात्कारसे उस प्रकार भीतर समवा दिया, जिस प्रकार छोटा बर्तन होनेसे उसमें नहीं समाते एवं बाहर गिरते हुए अन्न आदिको पहले कहकर बादमें हाथसे ठोंककर और तब भी नहीं समाता है तो उस बर्तनको पकड़कर हिलाकर उसी बर्तनमें अन्नादिको बलात्कारसे समवा दिया जाता है / नलको देखने में अत्यासक्त सखियों के गिरते हुए भूषणोंको किसी स्त्रीने पहले कहकर, फिर सावधान होकर नहीं सम्हालने पर हाथसे उसके शरीरपर ठोककर और इतनेपर भी नहीं सम्हालनेपर उसके शरीरको हिलाकर बलात्कारसे उसे सचेतकर उस भूषणको यथास्थान धारण करवाया ] // 80 // वतंसनीलाम्बुरुहेण किं दृशा विलोकमाने विमनीबभूवतुः ? / अपि श्रुती दर्शनसक्तचेतसां न तेन ते शुश्रुवतुमृगीदृशाम् / / 81 // . वतंसेति / दर्शनसक्तचेतसां नलविलोकनासक्तचित्तानां, मृगीदृशां स्त्रीणां, श्रुती
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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