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________________ द्वादशः सर्गः। 765 छोड़ा गया बाण न कम्पित होता है और न ध्वनि ही करता है, अत एव यह राजा दृढमुष्टि होकर बाण छोड़ता है, जिससे शत्रु-समूह तत्काल मर जाता है और उसे 'सी-सी' शब्द करने या कम्पित होनेका अवसर तक नहीं मिलता। शूरवीर यह मगधनरेश युद्धमें शत्रु-समूहको एक प्रहार में ही मार डालता है ] / / 98 // धूलीभिर्दिवमन्धयन् बधिरयन्नाशाः खुराणां रवै तिं संयति खञ्जयन् जवजयैः स्तोतृन गुणैर्मूकयन् / धर्माराधनसन्नियुक्तजगता राज्ञाऽमुनाऽधिष्ठितः सान्द्रोत्फालमिषात् विगायति पदा स्प्रष्टुंतुरङ्गोऽपि गाम / / 99 / / धूलीभिरिति / संयति युद्ध, खुराणां धूलीभिः दिवम् अन्धयन् अन्तरिक्षचारिणां दृष्टीः प्रतिबध्नन्नित्यर्थः, रवैः शब्दः, खुराणामेवेति शेषः, आशाः दिशः, तत्रत्यान् प्राणिन इत्यर्थः, बधिरयन बधिरीकुर्वन् , जवजयः वेगजयैः करणः इत्यर्थः, अनिला. नामिति भावः, वातं वायु; खञ्जयन् पशूकुर्वन् , वायोरप्यधिकवेग इत्यर्थः, गुणैः दयादाक्षिण्यादिभिः गुणसमूहैः,स्तोतन् मूकयन् मूकीकुर्वन् , गुणाधिकतया स्तोतु. मशक्य इत्यर्थः, धर्माराधनसन्नियुक्तजगता जगतो धमकसाधनकारिणा, अमुना राज्ञा अधिष्ठितः आरूढः, तुरगोऽपि अश्वोऽपि, सान्द्रोत्फालमिषात् वेगातिशयत्वात् निरन्तरम् उद्धचरणनिक्षेपव्याजात् , पदा एकेनापि चरणेन, इति वेगातिशयोक्तिः गां भुवं धेनुञ्च, स्प्रष्टु विगार्यात निन्दति, न स्पृशति इति यावत् 'गोब्राह्मणानलान् भूमिं नोच्छिष्टं न पदा स्पृशेत्' इति निषेधात् अयं राजा पापकारिणः उदासीनानपि दण्डयति अतः अहमस्य वाहको भूत्वा यदि पदा गोस्पर्शरूपं पापं कुर्यों तदा अहमपि दण्डनीयः स्यामिति बुद्धया एतदीयाश्वः पदा भुवं न स्पृशतीवेति भावः / अयं राजा धार्मिको जवनाश्वशाली चेति तात्पर्यम् // 99 // युद्ध में धूलियोंसे आकाशको अन्धा ( आकाशमें चलनेवालोंको दर्शनासमर्थ ) करता हुआ, खुरोंकी ध्वनियोंसे दिशाओं ( में रहनेवालों ) को बहरा करता हुआ, तीव्र वेग (गति ) से वायुको भी लंगड़ा करता हुआ अर्थात् वायुसे भी अधिक तीव्रगतिवाला तथा गुणों ( शालिवाहन शास्त्रोक्त शुभ लक्षणों ) से प्रशंसा करनेवालोंको ( सब शुभ लक्षणों के वर्णन करने में असमर्थ होनेसे) मूक करता हुआ धर्माचरणमें संसारको सम्यक् प्रकारसे लगानेवाले इस राजासे अधिष्ठित ( सवारी किया गया पशु भी) घोड़ा अत्यधिक उछलने के व्याजसे ( एक ) पैरसे भी पृथ्वी ( पक्षा०-गौ ) का स्पर्श करनेमें ( अपनी) निन्दा मानता है। [ धर्माचरण नहीं करनेवालोंको यह राजा दण्डित करता है, अतएव यदि मैं एक पैरसे भी गौ (पक्षा०-पृथ्वी ) का स्पर्श करूंगा तो यह मुझे भी कठोर दण्ड देगा इस भयसे उक्त घोड़ा वैसा नहीं करता ( पक्षा०-इतनी तीव्र गतिसे चलता है कि एक पैरसे भी पृथ्वी का स्पर्श करता हुआ नहीं प्रतीत होता)। धार्मिक इस राजाने समस्त प्राणियोंको धर्माचरणमें लगा दिया ] // 99 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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