________________ नैषधमहाकाव्यम् / करना नहीं चाहती ऐसे भाव ) को जानकर पानका बीड़ा हाथमें लेकर ( सरस्वती देवीके सामने करती हुई ) सरस्वतीसे बोली कि-'इस ( पानके बीड़े) से ; मुखके परिश्रमको दूर करो' अर्थात तुमने इस राजाका बहुत वर्णन किया जिससे मुख थक गया होगा, अतः यह पानका बीड़ा खाकर उसे विश्राम दो। [ तुम इस कामरूपाधिपका वर्णन करना इस पानके बीड़ा खानेके व्याजसे भी बन्द करो ] // 76 / / / समुन्मुखीकृत्य बभार भारती रतीशकल्पेऽन्यनृपे निजं भुजन् / ततस्त्रसद्वालपृषद्विलोचनां शशंस संसज्जनरञ्जनी जनीम् / / 77 / / समुन्मुखीति / अथ भारती सरस्वती, रतीशकल्पे कामतुल्ये, अन्यनृपे नृपान्तरे विषये, निजं भुजंसमुन्मुखीकृत्य, सम्यगभिमुखीकृत्य, बभार धारयामास, दमयन्त्यै तं दर्शयितुं तदभिमुखं कृतवतीत्यर्थः / ततो हस्तोद्यमानन्तरं, सबालपृषद्विलोचनां चकितमृगशावाक्षी, संसज्जनरञ्जनीं सभास्थजनमनोहारिणी, जनीं वधू', दमयन्तीमिति यावत् , शशंस उवाचेत्यर्थः॥ 77 // (इसके बाद ) सरस्वतीने कामदेव तुल्य दूसरे राजाकी ओर अपना हाथ किया, तद. नन्तर डरते हुए बालमृगके ( नेत्रके ) समान ( चञ्चल ) नेत्रवाली तथा सभासदों के चित्तको अनुरक्त करनेवाली वधू ( दमयन्ती ) से कहा-॥ 77 / / अयं गुणौघेरनुरज्यदुत्कलो भवन्मुखालोकरसोत्कलोचनः / स्पृशन्तु रूपामृतवापि ! नन्वमुं तवापि दृक्तारतरङ्गभङ्गयः / / 78 / / अयमिति / ननु हे ! रूपामृतवापि सौन्दर्यसुधारसदीर्घिके ! गुणौघः सौन्दर्यादिभिः, अनुरज्यन्तः अनुरक्ताः, उत्कलाः तद्देशीयलोकाः यस्मिन् स तादृशः, अयं राजा, भवत्याः तव, मखस्य आस्यस्य, आलोकरसेन आलोकनकौतुकेन, उत्कलोचनः उत्सुकाक्षः, भवतीति शेषः; तवापि दृशोः ताराः विशालाः, तरङ्गभङ्गयः पुनः पुनर्निक्षेपरूपवीचिविन्यासाः, अमुम् उत्कलाधिपतिं, स्पशन्तु, स्वानुरागिणि अनुराग उचित इति कटाक्षरेनं पश्येति भावः // 7 // ____ गुण-समूहसे अनुरक्त हो रहे हैं उत्कल ( उड़िया लोग, पक्षा०-उत्कृष्ठ 64 कलाएँ) जिसमें ऐसा यह राजा तुम्हें देखने में उत्कण्ठित नेत्रवाला अर्थात् तुम्हें देखने के लिए उत्सुक है, ( इस कारण ) हे रूप ( सौन्दर्य) रूपी अमृतकी वापी ( दमयन्ती ) ! इसे तुम्हारे भी नेत्रों के विशाल ( बड़े-बड़े या चञ्चल) तरङ्गों के विलास स्पर्श करें अर्थात् तुम भी इस उत्कलनरेशको चञ्चल नेत्र-कटाक्षों से देखो। [ उत्कलवासियों का अनुरक्त होने से इस राजामें सौन्दर्याधिक्य होना देवीने सूचित किया है। वापी में बड़े-बड़े तरङ्गोंका होना उचित ही है ] // 78 / / अनेन सर्वार्थिकृतार्थताकृता हतार्थिनौ कामगवीसुरद्रुमौ / मिथः पयःसेचनपल्लवाशने प्रदाय दानव्यसनं समाप्नुतः / / 76 //