________________ द्वादशः सर्गः। 746 अर्थात् सबने किया ( सब लोकों के निवासियों ने इसके यशको सुन कर उत्सव मनाया)। अभिषेकके लिये सिंहासनारूढ़ होना तथा दो कलशोंका रहना उचित ही है। यहां पर मथित क्षीरसमुद्रका जल सिंहासन, उस पर आरूढ (फैला हुआ ) इस राजाके यशको अभिषेष्य, क्षीरसमुद्रके कबियोंको अभिषेक करनेवाले, कवितामृतको जल, श्रोताओंके कानोंको कलश तथा इनसे पूर्ण होकर इसके यशके सर्वत्र फैलनेसे की गयी प्रशंसाको ही अभिषेक समझना चाहिये ] // 74 // समिति पतिनिपाताकर्णनद्रागदीर्णप्रतिनृपतिमृगाक्षीलक्षवक्षःशिलासु / रचितलिपिरिबोरस्ताडनव्यस्तहस्त प्रखरनखरटङ्करस्य कीर्तिप्रशस्तिः।।७।। समितीति / अस्य राज्ञः, कीत्तः प्रशस्तिः प्रशंसा, समिति आजौ, पतिनिपातस्य भत्तु मरणस्य, आकर्णने श्रवणेऽपि, द्राक् सद्य एव, अदीर्गासु अभिन्नासु, अक्षरविन्यासयोग्यासु इति यावत् , प्रतिनृपतिमृगाक्षोलक्षाणाम् अरिराजस्त्रीलक्षसङ्ख्यकानां, वक्षःशिलासु पाषाणकठिनवक्षःस्थलेषु, पतिमरणश्रवणक्षणे एवाविदीर्णत्वात् वक्षसः शिलात्वं बोध्यम् , उरस्ताडने वक्षस्ताडने व्यस्तानां ब्यापूतानां, सवेगं पातिताना. मिति यावत् , हस्तानां ये प्रखरनखाः तीक्ष्गनखाः तैरेव टङ्कः पाषाणदारकद्रव्यवि. शेषैः 'टङ्कः पाषाणदारणः' इत्यमरः, रचितलिपिरिव कृताक्षरविन्यासा इव, भाति इति शेषः / दुःखातिरेकात् वक्षःकृतनखालेखनेषु कीर्तिप्रशस्तेः अक्षरत्वोत्प्रेक्षणात् उत्प्रेक्षालङ्कारः // 75 // ___ इस ( राजा ) की कीर्ति-प्रशस्ति युद्धमें पतियोंका गिरना ( मरना ) सुननेसे तत्काल नहीं विदीर्ण हुए लाखों शत्रुमगनयनियों ( स्त्रियों ) के हृदयरूप पत्थरोंपर छाती पीटनेमें व्यस्त ( सलग्न ) हार्थों के तीव्र नखरूप टांकियाँ ( छेनियों) से लिखी गयी लिपिके समान है / [ युद्ध में इस राजा द्वारा मारे गये लाखों शत्रुओंकी स्त्रियों के छाती पीट-पीटकर रोते समय उनके नखोंसे जो चिह्न पड़ जाते हैं, वे पत्थरोंपर तीक्ष्ण टांकियोंसे खोदे गये इस राजाकी कीर्ति के शिलालेख हो रहे हैं / इसने लाखों शत्रुओंको युद्ध में मारकर गिरा दिया है और उनकी स्त्रियां छाती पीट-पीटकर रोती हैं ] // 75 // विधाय ताम्बूलपुटीं कराङ्कगां बभाण ताम्बूल करवाहिनी / दमस्वसुभोवमवेत्य भारती नयानया वक्त्रपरिश्रम शमन / / 76 // विधायेति / ताम्बूलकरङ्कवाहिनी ताम्बूलपात्रधारिणी, दमस्वसुः दमयन्त्याः, भावंतद्राजवर्णननिषेधरूपमभिप्रायम् , अवेत्य ज्ञात्वा, ताम्बूलपुटों ताम्बूलबीटिकां, करागां करतलसंस्थां, विधाय कृत्वा अनया वीटिकया, वक्त्रपरिश्रमं बहुक्षणं व्याप्य एतद्राजगुणकथनजन्यम् आस्यशोषं, शमं शान्ति, नय इति भारती बभाण; अम्ब ! नायमस्यै रोचते कृतं वृथा एतद्वनश्रमेणेति तात्पर्यम् // 76 // पानदानको ले चलने वाली (दासी) ने दमयन्तीके अभिप्राय ( इस राजाको यह वरण