________________ 784 नैषधमहाकाव्यम् / माण में सोने को प्राप्त करो ) चमकीले रूपकी सम्पत्ति अर्थात् शोभा किसी ( दूसरे) की ( इसके समान ) नहीं हो है ( पाठा०-इसके समान चमकीली रूप सम्पत्ति किसी की नहीं है)। __ नलपक्ष-प्रताप ( कोष-दण्ड आदिसे उत्पन्न तेजो-विशेष ) का निधि तथा सदा उन्नतिशील है, इसने जय ( शत्रु विजय ) से किस धनको ( अथवा-सर्वदा शुभकारक विधिवाले किस धनको ) नहीं पाया ? अर्थात् सब धनको पाया। पवित्र अर्थात् स्वधर्मतत्पर इससे ( विवाह करके ) पर्याप्त सोना प्राप्त करो अर्थात् इससे विवाह कर बहुत धनवती हो जावो / कान्ति, कण्ठस्वर और रूपकी शोभा ( इसके समान ) किसी की नहीं ही है अर्थाद इसके समान उपस्थित कोई राजा तेजस्वी, मधुर कण्ठस्वरवाला तथा रूपवान् नहीं है / ( अथवा--चमकीले रूप की शोभा..." ) // 9 // अत्यर्थहेतिपटुताकवलीभवत्तत्तत्पार्थिवाधिकरणप्रभवस्य भतिः / अप्यङ्गरागजननाय महेश्वरस्य सञ्जायते रुचिरकर्णि! तपस्विनोऽपि / / 10 / / ___ अत्यर्थेति / रुचिरकर्णि ! हे कमनीयकर्णे ! 'नासिकोदर-' इत्यादिना विकल्पात् ङीष , अत्यर्थया अतिमात्रया, हेतिपटुतया ज्वालापाटवेन, कवलीभवत् ग्रासीभवत्, इन्धनीभवदिति यावत् , तत्तत् पार्थिवं तृणकाष्ठादिपार्थिवद्रव्यमे, अधिकरणम् आश्रयः, तदेव प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः कारणं यस्य एवम्भूतस्य अग्नेः सम्बन्धिनी, भूतिर्भस्मापि, तपस्विनो महेश्वरस्याप्यङ्गरागजननाय अनुलेपसम्पादनाय; सञ्जायते भवति / अन्यत्र तु-अत्यर्थ हेतिपटुता आयुधसामर्थ्य, हेतिः स्यादायुधज्वालासूर्यतेजासु योषिति' इति मेदिनी, तस्याः कवलीभवद्भिः तैः तैः पार्थिवै राजभिः सह, अधिको रणः स एव प्रभवः कारणं यस्य तादृशस्य, रणात् राज्यलाभेन रणस्य राज्यकारणत्वेऽपि राजकारणस्वमुपचर्यते इति बोध्यम ; नलस्येति शेषः, भूतिः विजयलब्धा सम्पत् , 'भूतिभस्मनि सम्पदि' इत्यमरः महेश्वरस्य महैश्वर्यशालिनोऽपि, तपस्विनः अपि निवृत्तरागस्यापि जनस्य,रागजननाय अनुरागोत्पादनाय, आकर्षणायेत्यर्थः, सञ्जायते, अङ्गेत्यामन्त्रणे // 10 // ___ अग्निपक्षमें-हे मनोहर कानोंवाली (दमयन्ति) ! अत्यधिक ज्वाला सामर्थसे इन्धन रूप बनकर ) नष्ट होते हुए वे पार्थिव ( पृथ्वी-सम्बन्धी काष्ठ, कपड़ा, घास आदि द्रव्य, ही आश्रय तथा उत्पत्ति-स्थान है जिसका ऐसे इस अग्निका भस्म ( पाठा० ... "द्रव्य रूप जो आश्रय अर्थात् आधार उससे उत्पन्न होनेवाला इस अग्नि का भम्म ) तपस्वी महादेवजीके भी अङ्गरागोत्पत्ति ( शरीरमें लेप करने ) के लिए होता है। [जिसके निःसार भस्म को भी तपस्वी शङ्करजी भी शरीरमें लेप करते हैं, उसके अन्य सम्पत्तिके विषयमें क्या कहना है ? अर्थात् वह अवश्य ही अत्यधिक ऐश्वर्यवान् होगा। 'सुन्दर कानोंवाली' विशेषण देकर 2. .... "प्रभवाऽस्य' इति पाठान्तरम् /