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________________ 753 द्वादशः सर्गः। कृतावश्यायाच्छन्नदिवसः, तेषां प्रतिभटनृपाणां तद्वधूनाञ्च, कुदिवसो दुर्दिनञ्च, न भवतु ? भवेदेवेत्यर्थः / अत्र करशीकरादौ नीहारादिरूपणापकालङ्कारः // 82 // इस भूपतिकी फैलती हुई सेना के हाथियोंसे उत्पन्न ( पाठा०-हाथियों के समूह ) हेमन्तकालके आरम्भ करनेपर, शत्रु राजा लोग हृदयमें (पक्षा०-उस हेमन्तकाल में ) नहीं कम्पित हो / अर्थात् ( इस राजाके भयसे ) अवश्य कम्पित हो / ( पक्षा०-हेमन्त. काल में शीतसे कम्पित होना उचित ही है ), उन ( शत्रु राजाओं ) की स्त्रियोंका मुखरूपी कमल मलिन नहीं होवे अर्थात् इस राजाके युद्ध में पतिमरणकी आशङ्कासे उनका मुखकमल अवश्य मलिन होवे ( पक्षा०–हेमन्तकालमें कमलों का मलिन होना उचित ही है ) और वह ( युद्धदिवस ) उन (शत्रु राजाओं तथा उनकी स्त्रियों ) का कुदिन (अनिष्ट दिन, पक्षा०-दुर्दिन अर्थात् भेघाच्छन्न दिन ) नहीं होवे अर्थात् इस राजाके भयसे उन शत्रु राजाओं तथा उनकी स्त्रियों के लिए उक्त युद्ध-दिवस अवश्य अनिष्ट दिन होवे (पक्षाबादल घिरा हुआ दुर्दिन होना उचित ही है ) / [ इस राजाके सेना-गजों के हेमन्तकालके कुहरेके समान सूड़ोंसे छोड़े जाते हुए जलकणोंको देख उनकी अगणनीयताका अनुमान कर शत्रुओंका हृदय में कँपना, उनकी स्त्रियों के मुखका पतिमरणकी अशङ्कासे मलिन होना तथा उस युद्ध दिनका अशुभ दिन होना ( पक्षा०-क्रमशः हेमन्तकालमें मनुष्योंका हृदयसे कॅपना, कमलका मलिन होना तथा मेघसे घिरनेके कारण दुर्दिन होना) उचित ही है। इस राजाकी सेनामें अगणित हाथी हैं ] // 82 // आत्मन्यस्य समुच्चितीकृतगुणस्याहोतरामौचिती यद्गात्रान्तरवर्जनादजनयद्भूद्यानिरेष द्विषाम् / भूयोऽहक्रियते स्म येन च हृदा स्कन्धो न यश्चानमत् तन्मर्माणि दलं दलं समिदलंकर्मीणबाणव्रजः / / 83 // .. आत्मनीति / आत्मनि स्वस्मिन्नेव, समुच्चितीकृतगुणस्य समाहृतसौन्दर्यादिनिखिलगुणस्य, अस्य राज्ञः, औचिती औचित्यम् , अहोतराम् अत्याश्चर्य, 'किमेतत्-' इत्यादिना अव्ययादाम्-प्रत्ययः औचित्यमेवाह, समिति युद्ध, कर्मणे क्रियायै अलम् अलंकर्मीणः कर्मक्षमः, 'कर्मक्षमोऽलंकर्मीणः' इत्यमरः / 'पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्या' इति कृतसमासादलंकर्मशब्दात् 'अषडक्षासितंग्वलंकर्म-' इत्यादिना ख-प्रत्ययः / समिदलंकर्मीणो युद्धकर्मपटुः, बाणव्रजो यस्य स तथोक्तः अमोघबाण इत्यर्थः, एष भूर्जाया यस्येति भूजानिः भूपतिः, जायाया जानिरादेशः द्विषां शत्रूगां, येन च हृदा हृदयेन, भूयो भूयिष्ठम्. अहडिक्रयते स्म अहङ्करोतेर्भावे लट 'लट स्म' इति भूते लट यश्च स्कन्धो भुजशिरः, न अनमत् न प्राणमत् , 'स्कन्धो भुजशिरोऽसोऽस्त्री' इत्यमरः, गात्रान्तराणाम् अवयवान्तराणां, हृत्स्कन्धेतराणामित्यर्थः, वर्जनात् वर्जनं कृत्वेत्यर्थः, तेषाम् अनपराधित्वादिति भावः, ल्यब्लोपे पञ्चमी तानि हृदयस्कन्ध.
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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