________________ 1178 नैषधमहाकाव्यम् / प्राप्तलज्जा सती, हिया सहजलज्जया, दिनोदयं दिवसप्रादुर्भावम्, वान्छति स्म अभिललाष / विचित्रा हि नवोढानां चित्तवृत्तिरिति भावः // 52 // वह ( दमयन्ती ) दिनमें ( नलके) विरहको सहने में असमर्थ होकर पतिके संयोगकाल रात्रिको चाहती थी और रात्रिमें पति ( नल ) की कामकेलिसे लज्जित होती हुई लज्जासे दिनके प्रादुर्भावको चाहती थी / / 52 / / तत् करोमि परमभ्युपैषि यन्मा ह्रियं व्रज भियं परित्यज / आलिवर्ग इव तेऽहमित्यमूं शश्वदाश्वसनमूचिवान् नलः / / 53 / / तदिति / हे प्रिये ! यत् चुम्बनादिषु यत् किञ्चिन्मात्रम् , अभ्युपैषि स्वीकरोषि, अनुमोदसे इत्यर्थः / त्वमिति शेषः / परं केवलम्, तत् तन्मात्रमेव, करोमि सम्पादयामि, अहमिति शेषः / न पुनस्तवानभिप्रेतं किञ्चिदपि करोमीति भावः / अत एव हियं लज्जाम्, मा न, व्रज गच्छ, भियं त्रासञ्च, परित्यज दूरीकुरु, अहं ते तव, आलि. वर्गः सखीजनः इव, विश्रम्भभाजनमिति भावः। नलः नैषधः, अमूं प्रियाम, इति एवम् , शश्वत् मुहुर्मुहुः / 'मुहुः पुनः पुनः शश्वत्' इत्यमरः। आश्वसनं सान्त्वनाव. चनम् , उचिवान् उवाच // 53 // (हे प्रिये दमयन्ति ! ) मैं केवल (आलिङ्गन, चुम्बन आदिमेंसे ) वही करूँगा, जिसे तुम स्वीकार करोगी, लज्जा मत करो, (पुरुषके शरीरस्पर्शसे न मालूम क्या होगा ?, याये मेरी इच्छाके विरुद्ध भी कुछ व्वापार करेंगे इत्यादि शङ्कासे उत्पन्न होनेवाले ) भयको छोड़ो, मैं भी तुम्हारी सखियों के समान ही हूँ। ( पाठा०-इस (आलिङ्गन, चुम्बनादि)के विषयमें मैं तुम्हारी सखी ही हूँ;-इस कारण जैसे सखीके आलिङ्गन-चुम्बनादि करनेपर तुमको लज्जा या भय नहीं होता, उसी प्रकार सखीरूप मुझसे भी लज्जा या भय तुम्हें नहीं करना चाहिये / ' इस प्रकार आश्वासनयुक्त वचनको नल दमयन्तीसे बराबर कहते थे) // 53 // येन तन्मदनवह्निना स्थितं ह्रीमहौषधिनिरुद्धशक्तिना / सिद्धिमडिरुदतेजि तैः पुनः स प्रियप्रियवचोऽभिमन्त्रणः // 54 / / येनेति / येन तन्मदनवह्निना तस्याः दमदन्त्याः , कामाग्निना, हीः * लज्जा एव, महौषधिः अव्यर्थभेषजम्, तया निरुद्धशक्तिना प्रतिवद्धवीर्यण सता, स्थितं तस्थे। भावे क्तः / सः मदनवह्निः, सिद्धिमद्भिः साफल्यजनकशक्तियुक्तः, तैः पूवोक्तैः प्रियस्य पत्युः, प्रियवचोभिः एव सप्रेमभाषणेरेव, अभिमन्त्रणः मन्त्रप्रयोगैः, पुनः भूयः, उद. तेजि उत्तेजितः। तिज निशाने इति धातोय॑न्तात कर्मणि लुङ। औषधप्रतिबद्धोऽग्निः प्रतिमन्त्रेण पुनरुद्दीपितो भवतीति लोके दृश्यते / रूपकालङ्कारः // 54 // ___ लज्जारूप महौषधिसे निरुद्ध शक्तिवाली जो दमयन्तीकी कामाग्नि दबी थी, उसे सिद्धिप्राप्त नलके प्रियवचनरूप मन्त्र के प्रयोगने फिर उत्तेजित कर दिया। [ जिसप्रकार 1. 'इह' इति पाठान्तरम् /