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________________ त्रयोदशः सर्गः। 799 चतुरा दमयन्ती उस वर्णन में मेरा ( वरुणका) भी नाम रहनेसे मेरा वरण नहीं करेगी' कर दिया है अतः नलानुरक्ता दमयन्ती मुझे वरण करेगी या नहीं' इस प्रकार वरुणके तथा 'सरस्वती देवीने वरुणका भी नाम लेकर वर्णन कर दिया है। अतः मुझमें अनुरक्त दमयन्ती वरुणका वरण नहीं करके अन्त में मेरे ही शेष रह जानेसे मेरा ही वरण करेगी' इस प्रकार नलके सन्देहका नाश ( दूर ) होना समझना चाहिये ) // 25 / / बाला विलोक्य विबुधैरपि मायिभिस्तैरच्छद्मितामियमलीकन लीकृतस्वैः / आह स्म तां भगवती निपधाधिराजं निर्दिश्य राजपरिषत्परिशेषभाजम्।।२६।। __ बालामिति / अथेयं भगवती सरस्वती, तां बालां भैमी, मायिभिर्मायाविभिः, 'व्रीह्यादित्वादिनिः' अत एवालीकनलीकृतानि मायानलीकृतानि, स्वानि आत्मनो यस्ताशैः, तैः विबुधैः देवैरपि, अच्छभिताम् अप्रतारिता, नलवुद्धया तेषामवरगा. दिति भावः, छद्मशब्दात् 'तत्करोति-' इति ण्यन्तात् कर्मणि क्तः, विलोक्य राजयं, रिषदि राजसभाय, परिशेषभाजम् अवशिष्टतां गतं, निषधाधिराज नलं, निर्दिश्य हस्तेन प्रदर्श्य, आह स्म उवाच / 'परिशेष' इत्यत्र परिवेष' इति पाठे तु-राजपरिपदः परि सर्वतोभावेन, वेषमलङ्कार, भजतीति तादृशं राजसभालङ्कारभूतमित्यर्थः / राजपरिषद्पपरिधिभाजमित्यर्थस्यापि बोधनात् नलस्य चन्द्रत्वं ध्वन्यते // 26 // भगवती ( सरस्वती देवी ) असत्य नल बने हुए अत एव कपटी उन देवों ( इन्द्रादि चार देवों, का पक्षा०-विशिष्ट विद्वानों ) से भी नहीं टमी गयी बाला भी उस दमयन्तीको देखकर राज-सभाके अलङ्कार बने हुए ( अथवा-राज-सभाके अन्तमें स्थित, या राजसभामें अवशिष्ट ) निषधेश्वर ( नल ) को दिखलाकर बोली-[ यहां पर राज ( चन्द्र ) सभाके परिवेष धारण करने वाला कहने से नलका चन्द्र होना ध्वनित होता है ] / 26 // अत्याजिलब्धविजयप्रवस्त्वया किं विज्ञायते सचिपदं न महीमहेन्द्रः ? / प्रत्यधिदानवशताऽऽहिलचेष्टयाऽसौ जोमूतवाहनधियं न करोति कस्य ? / / अथ नलमेकैकश्लोकेन क्रमात् इन्द्रायकैकश्लेपेणाह, अत्याजीति / अत्याजिषु महायुद्धेषु, यो विजयप्रभवो जयरूपफलं येन सः, रुचिपदं वदनुरागास्पद, मही. महेन्द्रो सूदेवेन्द्रः, या किं न विज्ञायने ? अर्थपु विश्ये प्रत्यर्थि, विभक्त्यथै व्ययीभावः, दानस्य वशतया तनिष्टतया, आहितया कृलया, चेष्टया वितरणच्यापारेषण, असौ नलः, कस्य जीमूतवाहनः तमामा महात्यागी कधित विद्याधर राजा, सद्वियं तद्बुद्धि, जीमूतवाहनक्रान्ति सिमर्थः, न करोति ? न जनयति ? तस्मात नलोऽयमिति सावः / अन्यत्र तु-लब्धो विजयः पार्थ एव, विजयस्तु जये पार्थ इलिविश्वः, 1. 'परिवेष' इति पाठान्तरम् / 2. 'प्रसरस्त्वया' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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