SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 800 नैषधमहाकाव्यम् / प्रसवोऽपत्यं येन सः, रुचीनां तेजसां, पदं स्थानं, मह उत्सवः तद्वान् मही नित्योत्सव इत्यर्थः, महेन्द्रः देवेन्द्रः, त्वया अत्याजि त्यक्तः, किं न विज्ञायते ? अपि तु विज्ञेय एव; प्रत्यथिनां प्रतिपक्षाणां, दानवानां शतेषु आहितया कृतया; चेष्टया शत्रुनाशा. नुकूलपौरुषेण, असौ कस्य जीमूतवाहनः मेघवाहनः, इन्द्रः इत्यर्थः, 'इन्द्रो मरुत्वान् मघवा, तुराषाण्मेघवाहनः' इत्यमरः, तद्धियम् इन्द्रोऽयमिति बुद्धिं न करोति ? अपि तु करोत्येव / / 27 // ( यहांसे चार इलोकोंसे ( 13 / 27-30) नलका तथा उन्हीं चार श्लोकों में से एक-एक इलोकसे क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम, वरुणका वर्णन इलेष द्वारा सरस्वती देवीने किया है ) नलपक्षमें-बहुत ( या बड़े-बड़े ) युद्धमें विजयफल ( पाठा०-विजयाधिक्य ) को पानेवाले तथा रुचि ( शोभा या अनुराग ) के स्थान भूपति (नल ) को तुम क्यों नहीं जानती अर्थात् तुम्हे नलको जानना ( पहचानना) चाहिये। प्रत्येक याचकोंमें दानके वशपरायणताके द्वारा की गयी चेष्टासे यह (नल ) किसे जीमूतवाहनकी बुद्धिको नहीं उत्पन्न करता है अर्थात् प्रत्येक याचकों के लिये दानतत्परताकी चेष्टासे इसे सभी लोग जीमूतवाहन मानते हैं। ( अथवा-दानसे याचकके प्रति वशवा ( जितेन्द्रियभाव ) के द्वारा की गयी चेष्टा से...:: अथवा-प्रत्यर्थियों ( शत्रुओं) को खण्डन करनेवाले हैं प्राण जिनके ऐसे ( अत्यन्त शूर वीरों ) की अधीनतासे की गयी चेष्टासे यह किसे जीमूतवाहन ( इन्द्र ) की बुद्धि नहीं उत्पन्न करता है ? अर्थात् वशीभूत शत्रुहन्ता शूरवीरों के विषयमें इसके कार्यको देखकर सभी लोग इसे इन्द्र समझते ( इन्द्र-सा मानते ) हैं / इन्द्र के समान यह नल भी शत्रुओंको वश में करनेवाला है ) // पौराणिक कथा-पर्यायक्रमसे समयबद्ध होकर 1-1 सर्पना आहार प्रति दिन ग्रहण करनेवाले गरुडके लिये 'शङ्खचूड' नामक नागका स्थानापन्न होकर जीमूतवाहनने अपना शरीर अर्पण कर दिया और उनकी 'शिरामुखैः स्यन्दत एव रक्तमद्यापि देहे मम मांसमस्ति / / तृप्ति न पश्यामि तवापि तावत्कि भक्षणात्त्वं विरतो गरुत्मन् / ' वीरता एवं दयापूर्ण उक्तिसे प्रसन्नचित्त गरुड़ने अमृतवर्षाकर भक्षित सब सोको जीवित कर दिया तथा सदाके लिए पर्यायक्रमसे नागोंका भक्षण करना छोड़ दिया / ( नागानन्द ) इन्द्रपक्षमें बहुत ( या बड़े-बड़े ) युद्धों ( में विजयपाने ) वाला, विजय अर्थात् अर्जुन ( या जयन्त ) नामक पुत्र (पाठा०-विजय-विस्तार ) को पाये हुए, तेजःस्थान ( कान्तिमान् या अनुरागवान् ) तथा. उत्सववान् महेन्द्रको तुम नहीं जानती ( पहचानती ) हो ? अर्थात् जानती ही हो ( अथवा-नहीं जानती हो अर्थात् जानना चाहिये ) : यह ( इन्द्र ) शत्रुभूत सैकड़ों दानवों में की गयी चेष्टा ( व्यापार ) से मेघवाहन (इन्द्र ) की बुद्धि किसको नहीं करता अर्थात् सैकड़ों दानवोंमें इसके कार्यको देखकर सभी लोग इसे इन्द्र जानते हैं। ( अथवा-विजय-पुत्रको पाए हुए महेन्द्रको तुमने क्यों छोड़
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy