________________ त्रयोदशः सर्गः। 801 दिया ?, यह विज्ञ (विद्वान् ) के समान नहीं आचरण करता (विज्ञ नहीं) है ? अर्थात् विज्ञ ही है / रुचिका स्थान ( रुचिकर ) नहीं है ? अर्थात् रुचिका स्थान है ही, उत्सव. वान् नहीं है ? अर्थात् उत्सववान् भी है ही। आशय यह है कि इन गुणोंसे युक्त इस इन्द्र के त्यागमें कोई उचित कारण नहीं मालूम होता है / अथवा-वि ( पक्षी अर्थात् गरुड ) से जयको प्राप्त अर्थात् अमृतको स्वर्गसे लेजानेवाले गरुडसे पराजित, महेन्द्रको तुमने जानकर छोड़ दिया ? अर्थात् ठीक ही किया, यह तुम्हारी रुचिका स्थान (रुचिकर ) नहीं है अर्थात् तुन्हें नहीं रुचता और उत्सववान् नहीं है। अर्थात् दैत्यभयसे सदा उत्सवहीन है [ इस पक्षमें 'न' का दोनों ओर अन्वय करना चाहिये ] अथवा-उक्त गुणवाले इन्द्रको तुम नहीं जानती ? अर्थात् तुमने जान ही लिया है (क्योंकि इसे ) छोड़ दिया है / अथवा-महायुद्ध में (गरुड ) से पराजित महेन्द्रको...... ) [ उत्तरार्द्धकी व्याख्या इन वैकल्पिक पक्षों में भी पूर्ववत् ही समझनी चाहिये ] // 27 // पौराणिक कथा-सपत्नीसे पराजित होकर उसकी दासी बनी हुई माता 'विनता' को दासीत्वसे मुक्त करने के लिये गरुड स्वर्गमें जाकर वहींसे अमृत ले जाने लगे तो इन्द्रने मना किया और युद्ध में उन्हें पराजितकर गरुड अमृतको ले जाकर माता को दास्यत्वसे मुक्त किया / ( नागानन्द) येनामुना बहुविगाढसुरेश्वराध्वराज्याभिषेकविकसन्महसा बभूवे | आवर्जनं तमनु ते ननु साधु नामग्राहं मया नलमुदीरितमेवमत्र / / 28 / / येनेति / येनामुना नलेन, बहु यथा तथा, विगाढः क्षुण्णः, आचरित इत्यर्थः, सुरेश्वरस्य इन्द्रस्य, अध्वालोकपाल नरूपमार्गो यत्र तादृशे राज्ये अभिषेकाद्विकसन्ति वर्द्धितानि, महांस्युत्सवाः तेजांसि वा यस्य तादृशेन, बभूवे भूतम् / अत्र सभायां, मया नामग्राहं नाम गृहीत्वा, 'नाम्न्यादिशिग्रहोः' इति णमुल-प्रत्ययः, एवं पूर्वोक्तप्रकारेण, उदीरितम् उक्तं, नलं नलनामानं, तमेतम् , अनु लक्ष्यीकृत्य, ते तब, आव. जनमाकर्षणं, साधु ननु युक्तं खलु, अयमेव सत्यो नल एतद्वरणं युक्तमेवेत्यर्थः / अन्यत्र,तु-येनामुना अग्निना, बहु वारं वारं, विगाढा आहूताः इति यावत् ; सुरेश्वराः इन्द्रादयो देवश्रेष्ठाः येषु तादृशेषु अध्वरेषु यज्ञेषु, आज्यानां घृतानाम् , अभिषेकात् अन्तःसेकात् करणात् , विकसन्महसा वर्द्धमानतेजसा, बभूवे / मया अनलम् अग्निम् , अन्यत् समानम् // 28 // नलपक्षमें जो यह ( नल ) देवेन्द्र के ( लोक पालनरूप ) मार्गके अधिक सेवन तथा राज्याभिषेकसे बढ़े हुए तेजवाला हुआ ( अथवा-अनेक बार देवेन्द्रद्वारा सेवन किया गया है लोकपालनरूप मार्ग जिसका ऐसा ) है यहांपर ( इस सभामे, या इन पांच नलोंमें ) नाम ग्रहण कर मुझसे कहे गये उस (नल) को लक्ष्यकर तुम्हारा आकर्षण ( या पतिभावसे वरण करना ) उचित है, अर्थात मैंने यहां पर नल का नाम लेकर कह दिया, अत एव तुम्हें इसके प्रति आकृष्ट होना सर्वथा उचित ही है /