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________________ अष्टादशः सर्गः। 1153 शेषाः, ववचन वुचित् , नलस्य शयन स्थाने इति यावत् , भालतिलकस्य ललाटदेशे तिरवधारणस्य, प्रगल्भता स्पर्धा, शोभेति यावत् / अभाजि प्राता इति निद. शनालङ्कारः॥८॥ नलके शरीरस्पर्श (शयनकालमें शरीरके परिमर्दन) से अत्यधिक गन्ध, कोमलता, मनोज्ञता और अम्लान वर्णवाली पुष्पशय्याने कहींपर ( नलशयनस्थानमें ) जिस (प्रासाद ) की भूमिके ललाटतिलक की प्रगल्भता ( अत्यधिक समानता ) को प्राप्त किया। [ स्वयंवर में बरुणके दिये हुए 'अम्लानिरामोदभरश्च (14 / 85 ) के अनुसार नल के शरीरस्पर्शसे उनकी शय्याके पुष्पों में उक्त गुण आजानेसे उस पुष्पशय्याने उस प्रासाद भूमिके ललाटरथ तिलव की शोभाको प्राप्त किया। पाठा०-उक्त गुणवाली पुष्पवय्याके द्वारा जिस प्रासादकी भूमि ललाटस्थ तिलककी शोभाको प्राप्त होती है ] // 8 // कापि यन्निकटनिष्कुटरफुटरकोरकप्रकरसौरभोमिभिः / सान्द्रमध्रियत भीमन्दिनीनासिकापुटवुटीकुटुम्बिता // 9 // क्वापीति / क्वापि क्वचित् प्रदेशे, यस्य सोधस्य, निकटे समीपस्थे, निष्कुटे गृहारामे, स्फुटतां विकशताम् , कोरकप्रकरा कलि कानिवहानाम , सौरभोमिभिः परिमलपरम्पराभिः, सान्द्रं निरन्तरम् , भीमनन्दिनी भेमी, तस्याः नासिकापुटयोः नासामध्रयोः, कुटीवुटुम्बिता गाहस्थ्यम् , निस्यस्थायित्वमित्यर्थः / अधियत धारि, नन्दनविहारसुखम् अनुभूयते तया इति भावः // 9 // किसी स्थानपर जिस (प्रासाद ) के समीपमें गृहोद्यान के विकसित होते हुए कलिका. समूहके सुगन्धसमुदायसे सम्यक् प्रकार से दमयन्तीके नासिकापुटरूपी स्की गृहके कुटुम्बि. त्वको धारण किया ) [ उस प्रासाद के गृहोद्यानमें विकसित होते हुए कोरक-समूहके नानाविधि सौरमको दमयन्तीने अपने नास्किासे सूंघा, उस्की कविने कल्पना की है कि वे सौरभसमूह उस दमयन्ती के नासापुट में इस प्रकार निवास किये, जिस प्रकार एक कुटी (लघुतम घर ) में बहुत बड़ा कुटुम्ब बड़ी सङ्कीर्णतासे निवास करता है। अथवा-वे सौरभ. समूह दमयन्तीके नासापुटरूपी गृहके कुटुम्बी बने अर्थात् दमयन्तीके नासापट में जैसा सौरभ था, वैसा ही उस कलिका-समूहका भी सौरभ होनेसे वह वलिका- सौरभ-समूह स्के नासापुटरूपी गृहका कुटुम्बी बना ( उसकी समानताको प्राप्त किया )] // 9 // रुद्धसवेऋतुवृक्षवाटिकाकीरकृत्तसहकारशीकरैः / यजुषः स्म कुलमुख्यमाशुगो घ्राणवातमुपदाभिरश्चति / / 10 / / रुदेति / आशुगः वायुः, बहिरो वायुरिति भावः / 'आशुगोऽके शरे वायौ' इति यादवः / वुलमुख्यं वंशमध्ये श्रेष्टम् , नरदमयन्त्योः तत्परिजनानाञ्च साधे 1. 'सान्द्रमाद्रियत' इति पाठान्तरम्। 2. 'ऋद्ध-' इति पाठान्तरम् / 3. 'प्राग-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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