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________________ 1152 नैषधमहाकाव्यम् / रेजुरध्वततशैलजस्रजो यस्य मुग्धमणिकुट्टिमा भुवः // 7 // कुङ्कुमेति / कुङ्कुमणमदयोः काश्मीरजकस्तूरिकयोः, पङ्केन कर्दमेन, घृष्टवुङ्कुमम्गमदास्यामित्यर्थ: / लेपिताः दिग्धाः, च किच, हिमबालुकाऽम्बुभिः कर्परोदकः 'अथ करमस्त्रियाम् / घनसारश्चन्द्रज्ञः सिताभ्रो हिमबालुका' इत्यमरः / क्षालिताः धौताः, तथा अध्वसु प्रवेशमागषु, तताः विस्तृताः, शैलजस्य शेले यस्य, शिलाकुसुमाख्य. गन्धद्रव्य स्येत्यर्थः / सूजः माला यासु तादृश्यः, तथा मुग्धाः सुन्दराः, मणीन नानाम , ममिया इत्यर्थः। कुट्टिमाः निबद्धप्रदेशाः यासु तादृश्यः। 'कुट्टिमोऽस्त्री निबद्धा भूः' इति यादवः / यस्य सोधस्य, भुवः अङ्गणादिप्रदेशा इत्यर्थः / रेजुः शुशुभिरे। चूतवृक्षवत सामान्य विशेषभावादपौनरुक्त्यम् / समृद्धिमद्वस्तुवर्णनादुदात्तालङ्कारः // 7 // कुङ्कुम तथा कस्तूरी के पङ्कसे लिपी गयी कपूरचूर्ण के पानीसे धोयी गयी ( नल के आनेके) मार्गमे फैलायी गयी पर्वतपर होनेवाले ( अतिसुरभि मालती आदि, या-गन्धद्रव्य-विशेष की मालावाली और मनोहर मणियों के बने फर्शवाली जिस (प्रासाद ) की ( पाठ10जहांपर ) भूमि (आङ्गण आदि ) शोभती थी। [प्रकृत पाठमें 'अतिशय स्निग्धता तथा सुगन्धिके लिए कुङ्कुम-करतूरी-पकसे लीपना, तदन्तर पङ्ककी पिच्छिलता दूर करने के लिए कर्पूर-बालुका-जलसे धोकर पङ्कको दूर एवं अतिशयित सुगन्धित करना और नल तथा दमयन्तीके चरणों के अत्यन्त मृदु होनेसे चलने में कष्टानुभव होनेके भयसे मणिमयी भूमिमें पर्वतोत्पन्न मालत्यादि सुरमित पुष्प-समूहोंको बिछाकर उसे मृदुतम बनाना' अर्थ होता है, किन्तु इस क्रममें अर्धक्रम ठीक नहीं प्रतीत होता, इससे 'पाठक्रमादर्थक्रमो बलीयान्। ( पाठक्रमसे अर्थक्रम अधिक बलवान् होता है ) इस न्यायसे पहले कर्पूर-बालुकाजलसे धोकर गोमयादिस्थानीय कुङ्कुमकरतूरीपकसे लीपना और सबके अन्तमें कुसुम-समूहको बिछाना अर्थक्रम मानना सुन्दर है। अथवा- 'बालुकांशुभिः' पाठमें तो क्रम-परिवर्तन किये बिना ही पहले कुङ्कुम-करतूरी-पडसे लीपकर पिच्छिलता दूर करने के लिए कर्पूर-बालुकाओंसे उसे सुखाना और पुष्प-समूह बिछाकर मृदुतम करना' अर्थ होता है, इसी कारण 'प्रकाश' कारने इस पाटकी व्याख्या करके 'अत्र शाब्दोऽपि क्रमो घटते' अर्थात् 'इस पाटमें शाब्दिक क्रम भी संघटित होता है। ऐसा कहा है ] // 7 // नैषधाङ्गपरिमर्दमेदुरामोदमार्दवमनोज्ञवर्णया / यद्भुवः कचन सूनशय्ययाऽभाजि भालतिलकप्रगल्भता / / 8 / / नैषधेति / नैषधस्य नलस्य, अङ्गपरिमर्दन शरीरमर्दनेन, अङ्गलोठनेनेत्यर्थः / मेदुरः सान्द्रः, आमोदः गधा, मार्दवं मृदुत्वम् , मनोज्ञः मनोरमः, वर्णश्व शौभ्रयच्चेत्यर्थः / यस्याः तादृश्या, सूनशय्यया कुसुमशयनेन, यस्य सोधस्य, भुवः प्रदेशवि. 1. 'यत्र' इति पाठान्तरम् / 2. यान्ति भालातलकप्रगल्मताम् इति पाठान्तरमा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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