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________________ अष्टादशः सर्गः। 1151 क्योकि सुमेरुपर्वतमें एक चिन्तामणि थी और यहाँ नलके कण्ठमें अनेक चिन्तामणियोंकी माला थी] // 4 // धूपितं यदुदराम्बर चिरं मेचकैरगुरुसारदारुभिः / जालजालधृतचन्द्रचन्दनक्षोदमेदुरसमीरशीतलम् // 5 // धूपितमिति / यस्य सौधस्य, उदराम्बरम् अभ्यन्तराकाशम् , मध्यदेशमित्यर्थः / चिरं नित्यम् , मेचकैः कृष्णः, अगुरुगः तदाख्यचन्दनविशेषस्य, सारदारुभिः अभ्य. न्तरस्थहढकाष्ठः, धूपितं तधूमवासितमित्यर्थः / किञ्च, जालजालेषु गवारसमूडेषु, धृतैः स्थितैः, चन्द्रचन्दनक्षोदैः कर्पूरश्रोखण्डचूर्णैः, मेदुरेण सान्द्रस्निग्धेन, मृदुसुरभिणेति यावत् / समीरेण वायुना, शीतलं हिमम् , दूरोभूतधूपजसन्तापमित्यर्थः॥२॥ जिस प्रासादका भीतरी भाग कृष्णवर्ण अगरुके श्रेष्ठ काष्ठोसे धूपित और खिड़कियों की पंक्तियोंमें रखे हुए कर्पूर तथा चन्द्रमाको धूलिसे सान्द्र ( अतिशय) सुगन्धि वायुसे शीतल था अर्थात् जिस प्रासादके भीतरमें श्रेष्ठ कृष्णागरुका धूप दिया गया था और खिड़कियों पर कपूर तथा चन्दनकी धूलियों के ढेर रखनेसे जिसका भीतरी भाग सुगन्धपूर्ण एवं शीतल था / क्यापि कामशरवृत्तवर्त्तयो यं महासुरभितैलदीपिकाः / तेनिरे वितिमिरं स्मरस्फुरदोःप्रतापनिकराङ्करश्रियः / / 6 // क्वापीति / कामशरः चुनमुकुलः, कर्पूरविशेषः इति वा, तेन वृत्ताः निष्पन्नाः, वर्तयः दशाः यासां तादृश्यः, महासुरभीणि अतिशयसुगन्धीनि, तैलानि तिल जानि यासां तादृश्यः, दीपिकाः प्रदोपाः, स्मरस्थ कामस्य, स्फुरतोः स्पन्दमानयोः, भैमीनलव्यधार्थ चलितयारित्यर्थः / दोषोः भुजयोः, प्रतापनिकरस्य तेजोराशेः, अङ्कुराणां प्रराहाणाम्, श्रीः शोभा इव, श्रोः, यासांतादृश्यः सत्यः, यं सौधम् क्वापि कुत्रवित्, भैमीनलालकृतदेशे इत्यर्थः / वितिमिरं तमोराहित्यम् , तेनिरे चक्रिरे // 6 // जिस (प्रासाद ) कामशर (आम्रमजरो, अथवा-अनेकोषधिनिर्मिन धूर-विशेष', अथवा-कर्पूर ) से बनायी गयी ( अथवा-कामबाणके समान गोलकृति ) बत्तियोंवाले ( नल तथा दमयन्तीको पृथक करने के लिए ) स्फुरित होते हुए काम-बाहुके प्रताप-समूहाङ्करके समान शोभावाले महासुगन्धि तेलके दीपक कहींपर (नल-दमयन्तीके पासमें ) अन्धकार रहित (प्रकाशमान ) करते थे // 6 // कुकुमैणमदपकलेपिताः क्षालिताश्च हिमवालुकाऽम्बुभिः / १.-न्तरम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'काम शरारूपरनिर्माण सामग्रोः 'प्रकाश' च्याख्यायां लिखितास्तद्यथा 'पुरसर्जाभयालाक्षानखान्जादिजटागदैः / ‘समैः समधुभिधूपो मतः 'कामशरा भिधः // ' इति / ३.-बालुकांशुभिः' इति पाठे...."। अत्र शाब्दोऽपि क्रमो घटते, इति . 'प्रकाश' कृत् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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